माधव, बहुत मिनति कर तोय।
दए तुलसी तिल देह समर्पिनु, दया जनि छाड़बि मोय।
गनइत दोसर गुन लेस न पाओबि, जब तुहुँ करबि बिचार।
तुहू जगत जगनाथ कहाओसि, जग बाहिर नइ छार।
किए मानुस पसु पखि भए जनमिए, अथवा कीट पतंग।
करम-बिपाक गतागत पुन पुन, मति रह तुअ परसंग।
भनइ विद्यापति अतिसय कातर, तरइत इह भब-सिंधु।
तुअ पद-पल्लब करि अबलम्बन, तिल एक देह दिनबन्धु।
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Answer:हे माधव, अहाँक बहुत विनती करैत, जल आ तुलसी लए कए अपन देह समर्पित करैत छी, आहाँ हमरा पर दया करब, छोड़ब नहि । जखन आहाँ हमर गुण-दोष पर बिचार करब त खाली दोषे भेटत, गुण त भेटबे नहि करत । आहाँ जगत कए नाथ कहबैत छी, तै जगत कें बाहर नहि छोड़ब, अर्थात हमरा उद्धार करू । यदि कर्मक अनुसारहि संसार मे बार बार हम जन्म ली त मनुख जोनि मे जन्म हो या पशु मे अथवा कीट पतंग मे मुदा हमर मोन आहां मे लागल रहए । विद्यापति कहैत छथि एहि भवसागर कए पार करए मे हम कमजोर छी, हे दीनबंधु अपना चरण कमल कए एको तिल भरि सहारा हमरा देब जाहि सँ भवसागर पार कए सकी ।
Explanation:
Step:1माधव बहुत मिनति कर तोहि।
दए तुलसी तिल देह समरपल, दया जनि छाड़ब मोहि ।।
गनइत दोस गुन-लेस न पाओब, जब तोहें करब बिचार।
तोहें जगनाथ जगत कहाओसि, जगबाहर नहि मुजि छार ।।
गनइत दोस गुन-लेस न पाओब, जब तोहें करब बिचार । तोहें जगनाथ जगत कहाओसि, जगबाहर नहि मुजि छार ।।
किअ मानुस पसु पखि भए जनमिअ, अथवा कीट पतंग । करम बिपाक गतागत पुनु पुनु, मति रह तुअ परसंग ॥।
भनइ विद्यापति अतिसय कातर, तरइते ई भव-सिन्धु।
तुअ पद-पल्लव केर अबलम्बन,
तिला देह दिनबंधु ।1
Step:2मानव अनादिकाल से सौन्दर्य का भावन - उद्भावन - अनुसन्धान करता आ रहा है। सौन्र्य - सम्बन्धी यह भावन - संधान प्रत्येक व्यक्ति अपने - अपने ढंग , रूचि , संस्कार शक्ति एवं सीमा के अनुसार करता है। चाहे कोई सामान्य व्यक्ति हो , चाहे विशिष्ट - कवि हो अथवा कलाकार हो , सभी का पुरूषार्थ सौन्दर्य - साधन होता है। उसके जीवन या काव्य का प्रारम्भ और प्र्यवसान सौन्दर्य में ही अवस्थित है। हाँ , यह अवश्य है कि प्रत्येक कवि की सोन्दर्य - चेतना की विवृति नानाविध भावसंकुल , सांसारिक अनुभूतियों के माध्यम से होती है। ये अनुभूतियाँ ऐन्द्रिक हों या अतीन्द्रिक , शरीरी हों या अशरीरी ( दिव्य ) काव्य की प्रतिपाद्य होती है ; क्योंकि भारतीय संस्कृति में भाव की अभयर्थना के साथ शरीर की अवहेलना का विधान नहीं है। भाव एवं शरीर दोनों को समसमान महत्तव मिला है। भारतीय मानीषी यह समझते थे कि ‘ शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ’ - शरीर ही धर्मसाधना का साधन है , अतएव यह माननीय है।
Step:3महाकवि विद्यापति सौन्दर्य के अनुपमेय स्रष्टा एवं द्रष्टा थे। विद्यापति की ऐसी प्रखर दृषिट का कारण तत्कालीन परिवेश को स्वीकारा जाता है। कारण स्पष्ट है। कि मानव में कवि सृष्टि का सार्वाधिक संवेदनशील प्राणी होता है। वह जग की जड़ता और चेतना से जाने - अनजाने प्रभावित होता रहता है और इन समस्त प्रभावकारी तत्त्वो को अपने व्यक्तित्व में अन्तपर्भूत कर उसे सर्वभूत बनाने का प्रयास करता है। यही उसकी सामाजिकता है। समाज में रहने का तात्पर्य वही होता है कि वह सामाजिक जीवन में परिव्याप्त जो सांस्कृतिक , राजनीतिक , आर्थिक , भौगोलिक , साहित्यिक मूल्य , मान्यताएँ , विशेषताएँ एवं बिलक्षणताएँ है ; उनसे अपनी दिशा और दृष्टि निर्मित करे। विद्यापति इसके अपवाद नहीं है। उनकी दृष्टि के निर्माण का सारा श्रेय मिथिला की धरती को ही है। मिथिला सोन्दर्य की प्रसवस्थली के रूप में चिरकाल से प्रख्यात रही है। सौन्दर्य को भी सुन्दर बनाने वाली सीता मथिलाकी ही तो थी ! विद्यापति का सम्पूर्ण परिवेश प्रकृति की रमणीयता से आपूरित था तथा सौन्दर्य से सजग सन्नद्ध था। लेकिन दूसरी तरफ उनका राजनीतिक परिवेश ( संवत् 800 से सं . 1400 तक ) नाना प्रकार की विसंगतियों से भरा हुआ था। आचार्य शुक्ल इस काल की राजनीतिक अराजकता , सामाजिक दुव्र्यवस्था तथा धार्मिक अत्याचार का सचेत वर्णन करते हुए लिखते हैं कि देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठिता हो जाने पर हिन्दू जनता
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