माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवें पड़त।
कहै कबीर गुर ग्यान थें, एक आध उबरंत॥४॥
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माया दीपक की भाँती है और नर पतंग की भाँती है। नर पतंगे की भाँती भ्रम का शिकार बन कर स्वंय को समाप्त करने के लिए माया जाल की अग्नि में स्वंय को समाप्त करने के लिए आत्रू रहता है और गुरु के ज्ञान के आधार पर कोई एक आधा ही इससे बच पाता है। भाव है की गुरु की शिक्षाओं पर चलने वाला व्यक्ति ही माया को समझ सकता है अन्यथा वह भरम का शिकार होकर स्वंय को समाप्त करने में लगा रहता है। माया की इस अग्नि से कोई बिरला ही बच पाता है जो अपने गुरु की शरण में होता है।
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