महामारी के बाद लोगों के असहाय निरुपाय जीवन के बारे में बताते हुए किसी प्रतिशत समाचार पत्र के सपादक को पत्र लिखिए
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Answer:
महोदय, मैं अपने लोकप्रिय समाचार पत्र के माध्यम से महामारी के बाद लोगों के असहाय-निरुपाय जीवन के बारे में अपने विचारों को साँझा करना चाहता हूँ| मेरा नाम रोहित शर्मा है| | मैं न्यू शिमला में रहता हूँ | आशा है कि आप मेरे विचारों को अपने लोकप्रिय समाचार पत्र में प्रकाशित करेंगे।
Explanation:
मानव जीवन भौतिक, आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर बार-बार और आसानी से चोट खाते हुए भी सबक नहीं ले रहा है। उन्नत विज्ञान और तकनीक इन चोटों से हमें बचाने में असमर्थ है। कोरोना महासंकट को झेलते हुए भी इंसान जीवन की इस यथार्थता को समझ नहीं पा रहा है। यही कारण है कि संसार की मोह-माया, सत्ता एवं स्वार्थ के लुभावने इन्द्रजाल में फंसकर अपने सारे क्रिया-कलाप इस प्रकार करता जा रहा हैं, मानो अमरौती खाकर आये हों, अजर-अमर होने का वरदान लेकर आये हों। यदि उन्हें इस बात का ध्यान रहे कि जिन्दगी जटिल से जटिलतर होती जा रही है, मृत्यु प्रतिपल सम्मुख खड़ी है, जीवन किसी भी क्षण विकराल बन सकता है तो अपने कृत्यों एवं कारनामों पर सोचना चाहिए। इसी कोरोना महामारी ने मनुष्य और प्रकृति के बिगड़े संबंधों की ओर फिर ध्यान दिलाया है, मानव से दानव बन रही दुनिया की शक्ल को प्रस्तुति दी है। गत चार सौ वर्ष की महामारियों, महायुद्धों और हालिया दशकों में अंतहीन जिहादी एवं आतंकवादी हमलों ने भी यही दिखाया है। तब एक स्वस्थ, शालीन और सद्भावपूर्ण जीवन के लिए मानवता को क्या करना चाहिए? इस पर विचार करने की जरूरत है। लेकिन सुविधावाद में आदमी आदमी से बिछुड़ गया है। वह जमाना अब स्वप्न की चीज हो गया है, जब हमारी संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामय का घोष ही नहीं करती थी, उस पर अमल भी करती थी। आज भारत की उसी जीवनशैली को जन-जन की जीवनशैली बनाना होगा।
कोरोना महामारी एक तात्कालिक, वास्तविक और विराट त्रासदी है, एक महाप्रकोप है, जो हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया के स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि कोरोना महामारी जल्द खत्म होने वाली नहीं है। भले ही हमने अतीत में श्रेष्ठ जीवन जिया और तमाम तरह की उन्नतियां हासिल कीं। भले ही हम मानव इतिहास के सर्वश्रेष्ठ युग के साक्षी बने हैं, लेकिन एक बड़ा सत्य यह भी सामने खड़ा है कि एक कोरोना वायरस के सामने हम निरूपाय हैं, हमारा विज्ञान एवं हमारी तकनीक भी असहाय है। तकनीक एवं वैज्ञानिक उपलब्धियां हर दृष्टि से जीवन को श्रेष्ठ नहीं बना सकतीं। हमें प्रकृति के नियमों का सम्मान करना ही होगा, प्रकृति के दोहन को रोकना ही होगा। मानवता पर जब-जब संकट आया, तब-तब इसके समाधान के लिए दुनिया को भारत की ज्ञान-परंपरा एवं समृद्ध संस्कृति ने रोशनी दिखायी है।
वास्तव में मृत्यु की कल्पना हमें जीवन की गहराइयों में ले जाती है। हमें पता चलता है कि जो सांसें हमें मिली हैं, उनमें से एक भी सांस को व्यर्थ नहीं खोना है। निर्विकार रहकर एक-एक सांस का उपयोग करना है। अपनी ‘चदरिया’ पर दाग नहीं लगने देना है। उसे ज्यों का त्यों उतार कर रख देना है। लेकिन हमारी चदरिया तो दागों से लहूलुहान है। हम देवालय जाते हैं। प्रभु की मूर्ति के आगे क्षण भर के लिए हमारे मन की मलिनता दूर हो जाती है। हमारे विचार पवित्र हो जाते हैं। मैल का आवरण हट जाने पर आत्मा की ज्योति चमकने लगती है। यह तब होता है, जबकि हमारा मुंह प्रभु की ओर होता है, और पीठ दुनिया की ओर। लेकिन जैसे ही हम देवालय से बाहर आते हैं, हमारे मुंह दुनिया की ओर हो जाता है, उद्योगपति उद्योग में, किसान खेती-बाड़ी में, राजनेता राजनीति में, मजदूर मजदूरी में, लेकिन जीवन के अंत में वे पाते हैं कि उनके हाथ कुछ लगा नहीं।