महामारी के समय में भी शिक्षकों ने शिक्षक होने का बोध कराया है- कैसे? 1. बच्चों की शिक्षा की चिंता द्वारा| ||. अपनी नौकरी की चिंता द्वारा| III. अपनी सैलरी की चिंता द्वारा। IV. तकनीक न सीखने की हिम्मत द्वारा| |
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lकोविड-19 महामारी ने पूरे विश्व को पूरी तरह प्रभावित किया। चाहे वह वैश्विक अर्थव्यवस्था हो या अंतरराष्ट्रीय संबंध कुछ भी इससे अछूता नहीं रहा। शिक्षा व्यवस्था भी बुरी तरह प्रभावित हुई जिसका सबसे ज्यादा असर शिक्षकों पर पड़ा। कोरोना महामारी ने शिक्षकों की कड़ी परीक्षा ली है। शिक्षण संस्थान बंद हो जाने से शिक्षकों के सामने कई समस्याएं आ खड़ी हुई। भारत के शिक्षक इस संदर्भ में अपने आप को और असहाय पाते हैं। उनके सामने नई तकनीक के अलावा और भी कई चुनौतियां हैं जो उनके दुख का कारण बनी हुई हैं।
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पहले टीचर्स के फ़ोन नंबर तक बच्चों की पहुँच बहुत कम होती थी, जो भी बात करनी हो वो स्कूल में होगी, लेकिन अब हमारे नंबर स्टूडेंट्स के साथ-साथ उनके भाई-बहनों तक पहुँच गए हैं. स्टूडेंट्स के दिन-रात फ़ोन आते हैं और कई बार बच्चों के भाई-बहन गुड मॉर्निंग-गुड नाइट मैसेज भी भेजते हैं.”
दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका संगीता चौधरी ऑनलाइन क्लासें शुरू होने से बदली परिस्थिति के बारे में हमें बताती हैं.
कोरोना महामारी के दौरान बच्चों के स्कूल बंद हैं और सरकारी से लेकर निजी स्कूलों तक, बच्चों की ज़ूम, गूगल मीट और माइक्रोसॉफ्ट टीम्स जैसे ऐप्स के ज़रिये ऑनलाइन क्लासें चल रही हैं जो सिर्फ़ ऑनलाइन क्लासरूम तक सीमित ना रहकर, शिक्षकों की निजी ज़िंदगी तक पहुँच गई हैं.
बच्चों या उनके माता-पिता तक सूचनाएं पहुँचाने के लिए शिक्षकों ने अलग-अलग कक्षाओं के वॉट्सऐप ग्रुप बनाये हुए हैं. लेकिन जिस मोबाइल से बच्चे क्लास लेते हैं या फिर वॉट्सऐप के ज़रिये बात करते हैं, वो उनके माता-पिता या भाई-बहन का होता है.
शतरंज सिखाने वाली अनुराधा बेनीवाल अपने वक़्त को ब्रिटेन और भारत के बीच में बांटती हैं. वो अलग-अलग महाद्वीपों में मौजूद छात्रों को शतरंज सिखाती हैं.
लंदन के महंगे स्कूल से लेकर भारत के दूर-दराज़ के इलाक़े में रहने वाले ग़रीब बच्चों तक उनके यहां हर तरह के बच्चे सीखते हैं. लेकिन, कोविड-19 ने उनके लिए स्थितियां पूरी तरह से बदल दी हैं.
कोरोना वायरस फैलने के बाद डिजिटल साधनों तक पहुंच में बड़ी असमानता भारत में शिक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती बन गई है.
उसके पिता और चाचा उसे पटना के मनोचिकित्सक डॉ. विनय कुमार के क्लिनिक तक लेकर आए थे. 34 साल का शख़्स हर किसी को संदेह से देख रहा था और सोच रहा था कि सब लोग उसे मार डालेंगे.
इंडियन सायकेट्रिक सोसायटी (आईपीएस) के पूर्व महासचिव डॉ. विनय कुमार ने बताया, "यह मानसिक विकार से पीड़ित है, जिसकी शुरुआत इसकी नौकरी जाने के साथ हुई."
मनोविकार के संभावित लक्षणों में भ्रम, काल्पनिक चीज़ों के बारे में सोचना, अतार्किक बातें करना शामिल है. साथ ही यह वास्तविकता से दूर भी ले जाता है.
मशहूर पार्श्व गायक किशोर कुमार का एक गीत शायद आपको याद हो. गाने के बोल थे, 'कमाता हूं बहुत कुछ पर कमार्इ डूब जाती है...'. अपनी पहली नौकरी से रिटायरमेंट तक हम केवल कमाते और खर्च करते हैं. रोज की आपाधापी में जिंदगी यूं ही आगे बढ़ती जाती है. हम शायद ही सैलरी के बंधन से मुक्त होकर आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बारे में सोच पाते हैं. इसकी तैयारी के लिए हम कितना समय निकलते हैं? शायद कुछ भी नहीं! क्या वित्तीय आजादी कोर्इ हौव्वा है? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है.
आखिर क्या है वित्तीय आजादी? यह वह स्थिति है जब आपके पास अपने खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त पैसा होता है. जब आपको अपने भविष्य के लक्ष्यों को पाने की चिंता नहीं रह जाती है.
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