Hindi, asked by aaron28171, 8 months ago

महामारी के दौरान मजदूर की आत्मकथा​

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Answered by manojrai6165
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Answer:

मैं मजदूर हूँ। एक श्रमिक। मजदूरी करना ही मेरा धर्म है। मैं हिन्दू, मुस्लमान या ईसाई नहीं। मेरी पहचान है ‘श्रम’, मेरा कर्म है मजदूरी। मैं गरीब के घर पैदा हुआ, अभावों में पला बड़ा हुआ और अपनी किस्मत से लड़ता मजदूरी कर रहा हूँ। मेरा न तो कोई भविष्य है, न कोई बचपन, न जवानी! मैं कभी बिस्तर पर नहीं सोया। मैं मिट्टी में खेल कर बड़ा हुआ। मैं कभी विद्यालय नहीं गया। अंगूठा छाप हूँ मैं।

मजदूर का कोई नाम नहीं होता। पुल बने या घर, कारखाने में काम करूँ या खेत में, मुझे मजदूरी मिलती है। दैनिक मजदूरी। जिस दिन काम पर नहीं जाऊँगा, मैं और मेरे घरवाले भूखे सोयेंगे। पूरे परिवार के साथ मैं कार्यस्थल पर चला जाता हूँ। मेरी पत्नी भी मजदूरी करती है और बच्चे अन्य मजदूरों के बच्चों के साथ खेलते रहते हैं।

मौसम का हम पर कोई असर नहीं पड़ता। सर्दी हो, गर्मी हो या बरसात हम कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहते हैं। हम अन्न उत्पादन करते हैं और भूखे सोते हैं। घर बनाते हैं, इमारतें बनाते हैं और आकाश के तले खुले में सोते हैं। कपड़े की मिलों में काम करते हैं और हमारे परिवार के पास तन ढँकने को कपड़े नहीं होते।

हम पशु के समान हैं। हमें दुत्कार कर और मार कर काम लिया जाता है। हमारा शोषण किया जाता है। कभी कभी तो काम करने के बाद भी पैसे नहीं मिलते। हमारा परिवार बीवी बच्चे इलाज के बिना मर जाते हैं। हमारे बच्चे बड़े लोगों को देख कर आहें भरते हैं।

हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे स्वच्छ वातावरण में रहें, स्कूल जायें और साफ कपड़े पहनें। बीमार होने पर हमारा इलाज हो और हमारे पास भी इलाज के पैसे हों। हम किसी से बराबरी नहीं करना चाहते, किन्तु दिन रात पत्थर तोड़ने, बोझा ढोने और मेहनत के बाद हमें इतनी मजदूरी तो मिलनी ही चाहिये कि हम इज्जत की जिन्दगी जी सकें। पेट भर खा सकें। अब समय बदल रहा है। सरकार हमारे बारे में कुछ कानून बना रही है। मजदूर यूनियन हमारी मदद के लिये आगे आ रहे हैं।

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