महात्मा गांधी के सादा जीवन तथा वेशभूषा पर परियोजना
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नई दिल्ली। गांधी जी यानि एक ऐसा नाम, जिसके सामने अपने आप सब नतमस्तक हो जाते हैं। गांधी दर्शन की चर्चा हो, तो स्वाभाविक रूप से आदर्शवाद की एक तस्वीर हमारी आंखों के सामने खिंच जाती है। इस आदर्श में राम समाए हैं और समाई है उन्हीं की भांति जीवन के हर क्षेत्र में किंचित भी चूक ना होने देने की सतर्कता। अपने हर कर्म और विचार में गांधी जी दूरदृष्टि लेकर चलते थे। वे जानते थे कि समूचा भारत उन्हें भगवान की तरह पूजता है, इसीलिए वे अपने किसी कार्य में कमी नहीं छोड़ते थे। यहां तक कि खान-पान और वेशभूषा के मामले में भी वे स्वयं के ही नहीं, बल्कि अपने आश्रम में रहने वाले हर व्यक्ति को लेकर सतर्क रहते थे।
घटना साबरमती आश्रम की है। इस समय तक गांधी जी और उनके विचारों तथा कार्यों की धूम पूरे भारत, बल्कि विश्व में मच चुकी थी। उनके कार्यों से प्रभावित होकर कितने ही लोग स्वयंसेवक के रूप में उनसे जुड़ चुके थे। एेसे ही एक बार एक युवा संन्यासी साबरमती आश्रम में पधारे। आश्रम के वातावरण, स्वयंसेवकों की सेवा और करूणा की भावना से वे गहन रूप से प्रभावित हुए। 2 दिन आश्रम में रहने के बाद उन्होंने गांधी जी से निवेदन किया. बापू! मैं भी आपके आश्रम में रहकर प्राणीमात्र की सेवा करते हुए अपना बाकी जीवन बिताना चाहता हूं। कृपया मुझे भी इस सत्कार्य में सहयोग करने की अनुमति प्रदान करें। बापू ने कहा. दुखी जनों की सेवा से बढ़कर पुनीत कार्य संसार में दूसरा नहीं है। यदि आप स्वयं को इस कार्य में समर्पित करना चाहते हैं, तो सबसे अधिक आनंद मुझे ही होगा। लेकिन आपको आश्रम का सदस्य बनने के लिए एक शर्त का पालन करना होगा, आपको अपने गेरूआ वस्त्र त्यागने होंगे। संन्यासी ने कहा. बापू! मैं संन्यास ले चुका हूं। ये वस्त्र मेरे जीवन का अंग बन चुके हैं। मैं इन्हें कैसे त्याग सकता हूं? वैसे भी सेवा का वस्त्रों से क्या लेना. देना?
महात्मा गांधी जी का जीवन बहुत सादा था। वह धोती पहना करते थे। हाथ में लाठी रहती थी। और चेहरे पर चश्मा लगाते थे।
एक बार की बात है जब वह साबरमती आश्रम में रहते थे। उस समय गांधी जी के विचार और कार्य संपूर्ण भारत ही नहीं बल्कि विश्व में धूम मचा चुकी थी। उनके कार्य से प्रभावित होकर बहुत से लोग उनसे स्वयंसेवक के रूप में जुड़े।
ऐसे ही एक बार एक युवा सन्यासी साबरमती आश्रम में आया और वहां के वातावरण, स्वयंसेवकों की सेवा और करुणा की भावना को देखकर वह गहन रूप से प्रभावित हुआ। 2 दिन आश्रम में रहने के बाद उसने गांधी जी से आग्रह पूर्ण निवेदन किया, बापू! मैं भी आपके इस आश्रम में रहकर प्राणीमात्र की सेवा करते हुए अपना बाकी का संपूर्ण जीवन बिताना चाहता हूंँ। कृपया आप मुझे भी इस सत्कार्य में सहयोग देने की अनुमति प्रदान करें। बापू ने कहा, दुखी जनों की सेवा से बढ़कर पुण्य कार्य संसार में दूसरा नहीं।
यदि आप स्वयं इस कार्य में समर्पित करते हैं तो सबसे अधिक प्रसंता मुझे ही होगी। लेकिन इस आश्रम का सदस्य बनने के लिए आप
को एक शर्त का पालन करना होगा। आपको अपने यह गेरूहा वस्त्र त्यागने होंगे। उसी पर संन्यासी ने कहा, बाबू! मैं संन्यास ले चुका हूंँ। यह वस्त्र मेरे जीवन का अंग बन चुके हैं। मैं इन्हें कैसे तैयार सकता हूंँ? वैसे कहे तो सेवा का इन वस्त्रों से क्या लेना-देना होगा?
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