३) महात्मा गांधीनी चंपारण्य सत्याग्रह केला. 1 -- । । । 1 1 1आई वांट आंसर इन मराठी
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दक्षिण अफ्रीका सत्याग्रह की शक्ति को देख चुका था। पर, भारत में कुछ जगह हालात बदतर होते जा रहे थे। चंपारण के किसानों पर थोपी गई नील की खेती और अतिरिक्त कर उनकी कमर तोड़ रहे थे। शासन की क्रूरता के आगे विरोध के विकल्प समाप्त हो चुके थे। इंतजार था, तो बस गांधी का-
बात 1917 की है। चंपारण के किसानों का शोषण दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। ब्रितानी शासकों ने उन पर तीनकठिया नाम की व्यवस्था थोप दी है, जिसके तहत उनसे उनकी जमीन के 15 फीसदी हिस्से पर जबरन नील की खेती करवाई जाती है और साथ में कर भी देना होता है; जिसका पालन नहीं करने पर पिटाई, खेतों और घर की नीलामी जैसे गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं। ये नील की फसल चंपारण में अंग्रेजों की नील की फैक्टरियों में जाएगी। और सभी साहब आम के बागीचों, गन्ने के खेतों से घिरी आलीशान हवेलियों में रहते हैं।
लेकिन, एक समस्या है। जूट या अफीम के निर्यात में अब मुनाफा नहीं रहा। नील की डाई में फायदा तो है, लेकिन जर्मनी की कृत्रिम डाई के कारण ब्रितानी एकाधिकार को चुनौती मिल रही है। जो नील 1892-97 में उत्तरी और पूर्वी भारत में 91000 एकड़ जमीन पर उगाया जाता था, वह 1914 में 8100 एकड़ तक सीमित हो गया है, अधिकतर चंपारण के आसपास। पर, जबसे पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ है, अंग्रेजी राजशाही को ज्यादा संसाधन चाहिए। उत्तरी मैदानी इलाके में पट्टेदारों को अन्य फसलें उगाने के लिए अंग्रेज विवश कर रहे हैं और पानी, विवाह और मृत्यु पर कर वसूल रहे हैं। पट्टेदार नेता राजकुमार शुक्ला, और पत्रकार पीर मोहम्मद मुनिस दक्षिण अफ्रीका में अपने राजनैतिक आंदोलनों के लिए विख्यात गांधी को यहां लाना चाहते हैं। वे सफल होते हैं। अप्रैल 11 को चंपारण के रास्ते में गांधी मुजफ्फरपुर में रुक कर गिरमिटिया मजदूरों पर हुई क्रूरता के बारे में सुनते हैं।
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