महादेव भाई गांधीजी के दिल में बस जाते थे उदहारण सहित बताएं
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दो दशक से ज्यादा समय तक महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था
अव्यक्त
15 अगस्त 2019
महात्मा गांधी के साथ महादेव देसाई | एचटी फोटो
महादेव देसाई तब कोई बीसेक साल के नौजवान रहे होंगे. उनके कई सहपाठी और दोस्त खूब पैसे कमा रहे थे. ऐसे ही एक दोस्त के पिता उनके घर चाय पीने आए. घर की बैठकी से पड़ोस का एक महलनुमा बंगला दिख रहा था. दोस्त के पिता ने महादेव से कहा— ‘देखो भाई, मैं तो तब समझूंगा जब तुम उतना ही बड़ा बंगला अपनी कमाई से बनाकर दिखाओगे!’ इस पर महादेव के पिता ने ऐतराज़ करते हुए कहा - ‘हम तो महल या बंगला नहीं चाहते. हमारी झोपड़ियां ही हमारे महल हैं. हमें कैसे पता कि इन महलों में रहने वाले लोग वास्तव में कैसा जीवन जी रहे हैं? न ही हमें यह मालूम कि वे खुश हैं या दुखी हैं. अगर हम एक निष्कलुष और बेदाग जीवन जी सकें तो हम अपने मौजूदा हाल में ही पूरी तरह संतुष्ट हैं.’ यह घटना जानकर कहा जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में ऐसे पिता कम ही होते होंगे और महादेव इस मामले में भाग्यशाली रहे.
पिता हरिभाई गुजराती साहित्य के मर्मज्ञ थे और प्राइमरी स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी से शुरू करके वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज के प्राचार्य पद तक पहुंचे थे. मां जमनाबाई बहुत ही सुघड़ और समझदार महिला थीं. महादेव से पहले उनके तीन बच्चे शैशवावस्था में ही चल बसे थे. इसलिए जब महादेव गर्भ में थे तो वे सरस के सिद्धनाथ महादेव मंदिर में मन्नत मांग आई कि यदि यह बच्चा जीवित बच गया तो लड़की होने पर ‘पार्वती’ और लड़का होने पर ‘महादेव’ नाम रखूंगी. बच्चा बच गया और महादेव के नाम से अपना नाम सार्थक भी कर गया. लेकिन महादेव केवल सात वर्ष के थे जब उनकी मां चल बसीं. लालन-पालन पिता और दादी ने मिलकर किया. महादेव को मां के बारे में केवल इतना याद रहा कि पिता का केवल पंद्रह रुपये मासिक वेतन होने के बावजूद मां उन्हें राजकुमार की तरह लाड़ करती थीं और जब कहो तब हलवा बनाकर खिलाती थीं!
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दो दशक से ज्यादा समय तक महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था
अव्यक्त
15 अगस्त 2019
महात्मा गांधी के साथ महादेव देसाई | एचटी फोटो
महादेव देसाई तब कोई बीसेक साल के नौजवान रहे होंगे. उनके कई सहपाठी और दोस्त खूब पैसे कमा रहे थे. ऐसे ही एक दोस्त के पिता उनके घर चाय पीने आए. घर की बैठकी से पड़ोस का एक महलनुमा बंगला दिख रहा था. दोस्त के पिता ने महादेव से कहा— ‘देखो भाई, मैं तो तब समझूंगा जब तुम उतना ही बड़ा बंगला अपनी कमाई से बनाकर दिखाओगे!’ इस पर महादेव के पिता ने ऐतराज़ करते हुए कहा - ‘हम तो महल या बंगला नहीं चाहते. हमारी झोपड़ियां ही हमारे महल हैं. हमें कैसे पता कि इन महलों में रहने वाले लोग वास्तव में कैसा जीवन जी रहे हैं? न ही हमें यह मालूम कि वे खुश हैं या दुखी हैं. अगर हम एक निष्कलुष और बेदाग जीवन जी सकें तो हम अपने मौजूदा हाल में ही पूरी तरह संतुष्ट हैं.’ यह घटना जानकर कहा जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में ऐसे पिता कम ही होते होंगे और महादेव इस मामले में भाग्यशाली रहे.
पिता हरिभाई गुजराती साहित्य के मर्मज्ञ थे और प्राइमरी स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी से शुरू करके वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज के प्राचार्य पद तक पहुंचे थे. मां जमनाबाई बहुत ही सुघड़ और समझदार महिला थीं. महादेव से पहले उनके तीन बच्चे शैशवावस्था में ही चल बसे थे. इसलिए जब महादेव गर्भ में थे तो वे सरस के सिद्धनाथ महादेव मंदिर में मन्नत मांग आई कि यदि यह बच्चा जीवित बच गया तो लड़की होने पर ‘पार्वती’ और लड़का होने पर ‘महादेव’ नाम रखूंगी. बच्चा बच गया और महादेव के नाम से अपना नाम सार्थक भी कर गया. लेकिन महादेव केवल सात वर्ष के थे जब उनकी मां चल बसीं. लालन-पालन पिता और दादी ने मिलकर किया. महादेव को मां के बारे में केवल इतना याद रहा कि पिता का केवल पंद्रह रुपये मासिक वेतन होने के बावजूद मां उन्हें राजकुमार की तरह लाड़ करती थीं और जब कहो तब हलवा बनाकर खिलाती थीं!