महादेवभाई देसाई के बारे में जानकारी दीजिए और यख बताइये की गाँधी की सफलता में उनका क्या योगदान था
Answers
जीवन परिचय[संपादित करें]
महादेव देसाईं का जन्म सूरत के एक छोटे से गाँव "सरस" में १ जनवरी १८९२ को हुआ। महात्मा गाँधी से इनकी भेंट सर्वप्रथम ३ नवम्बर १९१७ को गोधरा में हुई। यही से महादेव देसाईं बापू और उनके आन्दोलनों से जुड़ गये और जीवन पर्यन्त राष्ट्र सेवा करते हुए १५ अगस्त सन १९४२ को आगा खान पैलस (ब्रिटिश राज द्वारा यह पैलेस जेल के रूप में प्रयुक्त होता था) में जीवन की अन्तिम श्वास ली। महादेव देसाईं ने बापू के निजी सचिव के तौर पर कार्य करते हुए अपनी डायरी में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन का जो जीवन्त वर्णन किया है, वह अदभुत हैं। वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के महत्वपूर्ण सैनिक थे।
"महादेव देसाईं का एक सुन्दर वर्णन ‘ हसीदे एदीब ‘ की ‘ इनसाइड इण्डिया’ (भारत में) नामक पुस्तक में ‘ रघुवर तुमको मेरी लाज ‘ नाम के चौथे अध्याय में मिलता है। जब वे महात्माजी से बातें कर रहीं थीं, महादेव देसाईं नोट ले रहे थे। उन्हीं के शब्दों में – ” वे निरंतर नोट लेते रहते हैं। मेरी महात्माजी से जो बातें हुईं, वे तो मैं आगे दूँगी ही। मगर यह उनका सेक्रेटरी ऐसा है कि वह किसी का भी ध्यान आकर्षित किए बिना नहीं रह सकता। यद्यपि वह अत्यन्त नम्र और अपने -आपको कुछ नहीं माननेवाला है। महादेव का गांधीजी के आंदोलन से अपर कोई अस्तित्व नहीं है। महादेव देसाई ऊँचे, इकहरे तीस – पैंतीस बरस के हैं। उनके चेहरे के नक्श दुरुस्त हैं और होठ पतले हैं ; आँखें ऐसी हैं कि वे किसी रहस्यमयी दीप्ति से चमकती रहती हैं। यह रहस्यभरी झलक (जो कि बहुत गहरी है) होते हुए भी, वह अत्यन्त व्यवस्थित काम करनेवाले व्यक्ति हैं। अगर वे व्यवस्थित न हों तो इतना सब काम कर ही नहीं सकते। यद्यपि उनका स्वभाव तेज, भावकतापूर्ण है ; फिर भी उनका अपनी वासनाओं पर संयम है। महात्माजी के प्रति जो श्रद्धा -भक्ति उन्हें है, वह धार्मिक है ; सोलह वर्षों से वे गांधी के साथ रहे हैं, उनसे एकात्म होकर। बचपन से बहुत तंग गलियों से गुजरता हुआ यह जवान आदमी आज वैराग्य की कठिनतम सीढ़ी पर चढ़ आया है। वह ‘ हरिजन ‘ का संपादन करता है। साथ ही सेक्रेटरी का सब काम करता है, जिसमें सफाई, बर्तन- धोना वगैरह सब आ जाता है। निरंतर योरोप, सुदूरपूर्व, अमरीका सभी ओर से गांधीजी प्रश्नों की झड़ी लग रही है और उसमें भी अपने मन की समतोलता को बनाये रखना असाधारण बुद्धिमत्ता का काम है। महादेव देसाईं ब्रिटिश राज एंव देशी रियासतों के मसलों को भी देखते थे। एक बार वह ग्वालियर-राज्य सार्वजनिक सभा के अध्यक्ष बनकर ‘मुरार’ गये।"
बापू के साथ भारत भ्रमण व जेल यात्राओं के अतिरिक्त ग्रेट ब्रिटेन के महाराजा के बुलावे पर महात्मा गाँधी के साथ महादेव देसाईं बंकिंमघम पैलेस इंग्लेंड भी गये, बापू महादेव सरदेसाई को पुत्रवत मानते थे।
सेवाग्राम[संपादित करें]महादेव देसाईं ‘सेवाग्राम’ में निवास करते थे, आज भी यह कुटी जिज्ञासुओं के अवलोकनार्थ व्यवस्थित है।
पत्रकारिता एंव लेखन[संपादित करें]दि इंडिपेंडेंट[संपादित करें]महादेव देसाईं 1921 में अखबार दि इंडिपेंडेंट से जुड़े, जो इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ करता था। मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरु के जेल जाने पर इस अखबार के संपादक के तौर पर महादेव देसाईं ने कार्य किया। ब्रिटिश सरकार द्वारा इस अखबार पर रोक लगा दी तब महादेव देसाईं "द इंडिपेंडेंट" को एक वर्ष तक साइकिलोस्टाइल पर निकाला। महादेव देसाईं की गिरफ्तारी होने पर महात्मा गांधी के पुत्र देवदास गांधी ने इस अखबार को निकाला और देसाईं की पत्नी दुर्गाबेन ने सक्रिय सहयोग दिया।[कृपया उद्धरण जोड़ें]
हरिजन पत्रमहादेव देसाईं हरिजन समाचार पत्र के संपादक थे। देसाईं 1924 में नवजीवन के संपादक रहे।
लेखन[संपादित करें]अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान पर पुस्तकनवजीवन के लिए लेखन डायरी लेखनलार्ड मोर्ले की रचना का गुजराती में अनुवाद२० खण्डों में प्रकाशित महादेव देसाईं की डायरीमहात्मा गांधी की गुजराती में लिखी आत्मकथा सत्य के साथ प्रयोग का अंग्रेजी में अनुवादजवाहरलाल नेहरू की अत्मकथा "एन ऑटोबायोग्राफ़ी" का गुजराती में अनुवादध्वस्त स्मारक[संपादित करें]बडवानी से लगभग पांच किलोमीटर दूर नर्मदा नदी के किनारे बापू कस्तूरबा के साथ उनके साथी महादेव देसाई की समाधियां स्थित हैं। इस स्थान को राजघाट के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में महात्मा गांधी के साथ कस्तूरबा और महादेव देसाईं के भस्मी कलश स्मारक जर्जर हो गये हैं।
मृत्यु[संपादित करें]आठ अगस्त १९४२ को मुम्बई के ग्वालिया टैक के मैदान में अपने ऐतिहासिक भाषण में महात्मा गाँधी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो - करो या मरो’ का नारा दिया। ९ अगस्त की भोर में महात्मा गाँधी, श्रीमती सरोजनी नायडू और महादेव देसाईं को गिरफ़्तार कर पुणे के आगा खाँ महल में बन्द कर दिया गया। १५ अगस्त १९४२ को महादेव देसाईं की इस जेल में ही मृत्यु हुई।
महादेव देसाईं की समाधि[संपादित करें]आगा खान महल में कस्तूरबा और महादेव देसाईं की समाधियांमहादेव देसाईं को नौ अगस्त १९४२ में गिरफ्तार कर आगा खान महल में रखा गया। १४-१५ अगस्त की मध्य रात्रि को देसाई का निधन हुआ। उनके निधन के उपरान्त महात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार आगा खान के महल में उनकी समाधि बनवाई गई। इस समाधि पर ओम एंव क्रास के चिन्ह अंकित किए गये। महादेव देसाईं के मृत्यु के एक वर्ष पश्चात कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ, कस्तूरबा की समाधि महादेव देसाईं की समाधि के निकट निर्मित की गयी
महात्मा गाँधी समुच्च मानव जाति के लिए मिशाल हैं। उन्होंने हर परिस्थिति में अहिंसा और सत्य का पालन किया और लोगों से भी इनका पालन करने के लिये कहा। उन्होंने अपना जीवन सदाचार में गुजारा। वह सदैव परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनते थे। सदैव शाकाहारी भोजन खाने वाले इस महापुरुष ने आत्मशुद्धि के लिये कई बार लम्बे उपवास भी रक्खे।
सन 1915 में भारत वापस आने से पहले गान्धी ने एक प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष किया। भारत आकर उन्होंने समूचे देश का भ्रमण किया और किसानों, मजदूरों और श्रमिकों को भारी भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध संघर्ष करने के लिये एकजुट किया। सन 1921 में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभाली और अपने कार्यों से देश के राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य को प्रभावित किया। उन्होंने सन 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान कई मौकों पर गाँधी जी कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहे।
प्रारंभिक जीवन
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म भारत में गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर में 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान थे। मोहनदास की माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय से ताल्लुक रखती थीं और अत्यधिक धार्मिक प्रवित्ति की थीं जिसका प्रभाव युवा मोहनदास पड़ा और इन्ही मूल्यों ने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वह नियमित रूप से व्रत रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। इस प्रकार मोहनदास ने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए व्रत और विभिन्न धर्मों और पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
सन 1883 में साढे 13 साल की उम्र में ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा से करा दिया गया। जब मोहनदास 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। उनके पिता करमचन्द गाँधी भी इसी साल (1885) में चल बसे। बाद में मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं – हरीलाल गान्धी (1888), मणिलाल गान्धी (1892), रामदास गान्धी (1897) और देवदास गांधी (1900)।
उनकी मिडिल स्कूल की शिक्षा पोरबंदर में और हाई स्कूल की शिक्षा राजकोट में हुई। शैक्षणिक स्तर पर मोहनदास एक औसत छात्र ही रहे। सन 1887 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अहमदाबाद से उत्तीर्ण की। इसके बाद मोहनदास ने भावनगर के शामलदास कॉलेज में दाखिला लिया पर ख़राब स्वास्थ्य और गृह वियोग के कारण वह अप्रसन्न ही रहे और कॉलेज छोड़कर पोरबंदर वापस चले गए।
विदेश में शिक्षा और वकालत
मोहनदास अपने परिवार में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे थे इसलिए उनके परिवार वाले ऐसा मानते थे कि वह अपने पिता और चाचा का उत्तराधिकारी (दीवान) बन सकते थे। उनके एक परिवारक मित्र मावजी दवे ने ऐसी सलाह दी कि एक बार मोहनदास लन्दन से बैरिस्टर बन जाएँ तो उनको आसानी से दीवान की पदवी मिल सकती थी। उनकी माता पुतलीबाई और परिवार के अन्य सदस्यों ने उनके विदेश जाने के विचार का विरोध किया पर मोहनदास के आस्वासन पर राज़ी हो गए। वर्ष 1888 में मोहनदास यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। अपने माँ को दिए गए वचन के अनुसार ही उन्होंने लन्दन में अपना वक़्त गुजारा। वहां उन्हें शाकाहारी खाने से सम्बंधित बहुत कठिनाई हुई और शुरूआती दिनो में कई बार भूखे ही रहना पड़ता था। धीरे-धीरे उन्होंने शाकाहारी भोजन वाले रेस्टोरेंट्स के बारे में पता लगा लिया। इसके बाद उन्होंने ‘वेजीटेरियन सोसाइटी’ की सदस्यता भी ग्रहण कर ली। इस सोसाइटी के कुछ सदस्य थियोसोफिकल सोसाइटी के सदस्य भी थे और उन्होंने मोहनदास को गीता पढने का सुझाव दिया।