Mahatma buddha par hindi me nebhand leko 100 shabdo me
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ईसा पूर्व छठीं शताब्दी के नास्तिक सम्प्रदाय के आचार्यों में महात्मा गौतम बुद्ध का नाम सर्वप्रमुख है । उन्होंने जिस धर्म का प्रवर्त्तन किया वह कालान्तर में एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म मन गया । ‘विश्व के ऊपर उनके मरणोत्तर प्रभावी के आधार पर भी उनका मूल्यांकन किया जाये तो वे भारत में जम लेने वाले महानतम व्यक्ति थे ।’
गौतम बुद्ध का जन्म लगभग 563 ईसा पूर्व में कपिलवस्तु के समीप लुम्बिनी वन (आधुनिक रुमिन्देई अथवा रुमिन्देह नामक स्वान) में हुआ था । उनके पिता शुद्धोधन कपिलवस्तु के शाक्यगण के प्रधान थे । उनकी माता का नाम मायादेवी था जो कोलिय गणराज्य की कन्या थी । गौतम के बचपन का नाम सिद्धार्थ था ।
उनके जन्म के कुछ ही दिनों बाद उनकी माता माया का देहान्त हो गया तथा उनका पालन-पोषण विमाता प्रजापति गौतमी ने किया । उनका पालन-पोषण राजसी ऐश्वर्य एवं वैभव के वातावरण में हुआ । उन्हें राजकुमारों के अनुरूप शिक्षा-दीक्षा दी गयी । परन्तु बचपन से ही वे अत्यधिक चिन्तनशील स्वभाव के थे ।
प्रायः एकान्त स्थान में बैठकर वे जीवन-मरण, सुख-दुख आदि समस्याओं के ऊपर गम्भीरतापूर्वक विचार किया करते थे । उन्हें इस प्रकार सांसारिक जीवन से विरक्त होते देखे उनके पिता को गहरी चिन्ता हुई । इन्होंने बालक सिद्धार्थ को सांसारिक विषयभोगों में फँसाने को भरपूर कोशिश की । विलासिता की सामग्रियाँ उन्हें प्रदान की गयीं ।
इसी उद्देश्य से 16 वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता ने उनका विवाह शाक्यकुल की एक अत्यन्त रूपवती कन्या के साथ कर किया । इस कन्या का नाम उत्तरकालीन बौद्ध अन्यों में यशोधरा, बिम्बा, गोपा, भद्कच्छना आदि दिया गया है । कालान्तर में उसका यशोधरा नाम ही सर्वप्रचलित हुआ । यशोधरा से सिद्धार्थ को एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ जिसका नाम ‘राहुल’ पड़ा ।
तीनों ऋतुओं में आराम के लिये अलग-अलग आवास बनवाये गये तथा इस बात की पूरी व्यवस्था की गयी कि वे सांसारिक दुखों के दर्शन न कर सकें । परन्तु सिद्धार्थ सांसारिक विषयभोगों में वास्तविक संतोष नहीं पा सके । विहार के लिये जाते हुए उन्होंने प्रथम बार वृद्ध, द्वितीय बार एक व्याधिग्रस्त मनुष्य, तृतीय बार एक मृतक तथा अन्ततः एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा ।
उनका हृदय मानवता को दुख में फँसा हुआ देखकर अत्यधिक खिन्न हो उठा । बुढ़ापा, व्याधि तथा मृत्यु जैसी गम्भीर सांसारिक समस्याओं ने उनके जीवन का मार्ग बदल दिया और इन समस्याओं के ठोस हल के लिये उन्होंने अपनी पत्नी एवं पुत्र को सोते हुए छोड़कर गृह त्याग दिया । उस समय सिद्धार्थ की आयु 29 वर्ष की थी । इस त्याग को वौद्ध ग्रन्थों में ‘महाभिनिष्क्रमण’ की संज्ञा दी गयी है ।