Hindi, asked by callmano, 1 year ago

मजहब न सिख़ता आपस मैं बैर राखना पर एक पैराग्राफ लिखिए

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Answered by Anonymous
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मजहब नहीं सिखाता अपास में बैर रखना

अच्छाई हमेशा अच्छाई रहती है। उसका मूल स्वरूप-स्वभाव कभी विकृत नहीं हुआ करता। उस पर किसी एक व्यक्ति या धर्म-जाति का अधिकार भी नहीं हुआ करता। अपने मूल स्वरूप में मजहब भी एक अच्छाई का ही नाम है। मजहब, धर्म, फिरका, संप्रदाय और पंथ आदि सभी भाववाचक संज्ञांए एक ही पवित्र भाव और अर्थ को प्रकट करती हैं। सभी का व्यापक अर्थ उच्च मानवीय आदर्शों और आस्थाओं से अनुप्राणित होकर विभिन्न नामों वाले एक ही ईश्वर को हाजिर-नाजिर मान सत्कर्म करना और समग्र रूप से अच्छा बनना है। ऐसे कर्म कि जिनके करने से सारी मानवता ही नहीं, प्राणी मात्र और जड़ पदार्थों का भी कल्याण हो सके। इस मूल विचार से हटकर संकीर्ण-संकुचित हो जाने वाला भाव मजहब-धम्र आदि कुछ न होकर महज स्वार्थ एंव शैतान हुआ करता है। सभी मजहबों की बुनियादी अवधारणा शायद यही है।

मजहब, धर्म, फिरका, संप्रदाय और पंथ वह नहीं होता कि जो मात्र बाह्य आचार ही सिखाता है और इस प्रकार एक मनुष्य को दूसरे से दूर ले जाता है। मजहब और धर्म कच्चे धाके की डोर भी नहीं हो कि जो किसी के स्पर्श मात्र से टूटकर बिखर जाएं या किसी वस्तु का धुआं मात्र लगाने से ही अपवित्र होने की सनसनी पैदा कर दें। मजहब और धर्म तो अपने-आप में इतने पवित्र, महान और शक्तिशाली हुआ करते हैं कि उनका स्पर्श पाकर अपवित्र भी पवित्र बन जाया करता है। मजहब-धर्म र्इंट-गारे के बने हुए भवन भी नहीं हैं कि जिनकी क्षति उदात्त मानवीय भावनाओं की क्षति हो और चारों तरफ ऐसा कहकर बावला खड़ा किया जाए। नहीं, धर्म मजहब आदि इस प्रकार की समस्थ स्थूलताओं, बाह्चारों से ऊपर हुआ करते हैं। ऊपर रहने वाले धर्म-मजहब ही जीवित रहकर अपने अनुयायियों के लिए प्रेरणा-स्त्रोंत भी बने रहते हैं। अन्यथा अपनी ही भीतरी दुर्बलताओं से नष्ट हो जाया करते हैं। अपने अनुयायियों के नाश के कारण भी बना करते हैं।

कभी भी धर्म या मजहब हमें अपने को उच्च या श्रेष्ठ समझने, दूसरों को नीच या हीन समझकर भेद-भाव करने की शिक्षा नहीं देता। सभी मजहब समानता के पक्षपाती हैं। सभी के सुख-दुख को समान समझ उनके दुखों को भरसक दूर करने की प्रेरणा देते हैं। वस्तुत: मानवता, अपनी जातीयता और राष्ट्रीयता ही मजहब, धर्म और पंथ हुआ करती है। जो ऐसा नहीं समझते, उन्हें किसी देश तो कया इस धरती पर भी बने रहने का अधिकार नहीं है। बड़े खेद की बात है कि आज इन व्यापक और पवित्र भाववाचक संज्ञाओं की गलत-शलत व्याख्यांए करके कुछ लोग स्वंय तो नाहक परेशान होते ही रहते हैं, दूसरों के लिए भी विनाश एंव परेशानियों की सामग्री जुटाते रहते हैं। ऐसे लोगों का प्रत्येक स्तर पर बहिष्कार और कठोर दमन परम आवश्यक है। उन्हें जड़-मूल से मिटा दिया जाना चाहिए।

हर समझदार व्यक्ति ने धर्म-मजहब की वास्तविक मर्यादा को समझ-बूझकर प्रेम और भाईचारे का ही संदेाश् दिया है। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में इस तथ्य को पहचानकर ही स्वर्गीय अलामा इकबाल ने अपनी काव्यमयी वाणी में यह उचित संदेश दिया था :

‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।

हिंदी हैं, हम वतन हैं, हिंदोस्ता हमारा।’

आज भी इस सूक्ति को सत्य-संभावित मानकर इसके अनुसार आचरण करके ही देश-जाति में शांति-सुरक्षा स्थापित की जा सकती है।

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