मजदूरों मजदूरों और पूजी पतियों के बीच में संघर्ष के क्या कारण लगते हैं बस में लिखिए
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सर्वप्रथम स्पार्टक्स नामक दास (गुलाम) के नेतृत्व में मजदूरों का संघर्ष रोमन साम्राज्य की चूूलेंं हिला कर रख दी थी। यह घटना 1789 की है। ऐसा कहा जाता है कि इन्हीं गुलामों ने फ्रांस से सदा के लिए राजशाही का अंत कर दिया था। उस समय फ्रांस के राजा लुई सोलहवां हुआ करते थे। इसे आधुनिक दुनिया की प्रथम क्रांति के रूप में जाना जाता है और इसे फ्रांस की राज क्रांति की संज्ञा दी जाती है। आधुनिक विश्व में सामान्य प्रजा की जीत की यह पहली घटना थी। इसके बाद दुनिया में प्रजातंत्र की नींव पड़ी।
1917 में रशियन क्रांतिकारी ब्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई और वहां से भी जारशाही यानी राजशाही का अंत हो गया। लेनिन के नेतृत्व वाली सरकार दुनिया की पहली साम्यवादी सरकार थी यानी मजदूर और किसानों की सरकार थी। द्वितीय विश्व युद्ध ने दुनिया में राजा-रानी की कहानी को ही मानों समाप्त कर दिया। श्रमिकों, मजदूर और किसानों की संगठित ताकत ने लोकतंत्र को बल दिया और उसको दिशा देने का काम साम्यवादियों ने किया। लेनिन के नेतृत्व वाली रक्तहीन बोल्शेविक क्रांति ने दुनिया के राजनीतिक इतिहास को बदल कर रख दिया।
साम्यवादी दावा करते हैं कि दुनिया का इतिहास संघर्षों का है। कार्ल मार्क्स ने दुनिया की द्वंद्वात्मक तरीके से व्याख्या की और उस व्याख्या को लेनिन ने धरती पर उतारने की कोशिश की। वह चिंतन कितना धरती पर उतरा और धरती पर स्वर्ग की कल्पना कितनी साकार हुई यह तो बहस का विषय है लेकिन लेनिन की तुलना युगान्तारी योद्धाओं से की जाती है। दुनिया का आज तक का इतिहास मजदूरों के संघर्ष और बलिदान का इतिहास है लेकिन इतिहास पर राजा सामंतों का कब्जा होने के कारण मजदूरों के संघर्ष की कहानी कम ही पढ़ने को मिलती है।
यदि मध्यकालीन भारत के इतिहास को देखते हैं तो यहां भी मुगलों के खिलाफ किसान और मजदूरों की लड़ाई देखने को मिलती है। बंदा बहादुर के नेतृत्व में लड़ी गई सरहिंद की लड़ाई किसान और मजदूरों की लड़ाई थी। कुछ इतिहासकार सिख संघर्ष को भी किसान मजदूरों के संघर्ष से जोड़ कर देखते हैं। यही नहीं शिवाजी महाराज के संघर्ष को भी किसानों का संघर्ष ही बताया जाता है। नव साम्यवादियों की मानें तो आधुनिक लोकतंत्र में भी इतिहास की व्याख्या पूंजीपतियों के बचाव को लेकर की जाती है।
दरअसल, 1 मई 1886 को ही मजदूर आंदोलन ने इतिहास की पुरानी मान्यता को मिटाया था। मजदूरों के श्रम पर सामंतों और राजाओं का अधिकार था। राजा और सामंत मजदूरों को अपनी संपत्ति समझते थे। श्रमिक, किसान और हस्तशिल्पियों का अपना कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं था। वे मालिक के दास हुआ करते थे। उस जमाने में मजदूरों की खरीद-बिक्री होती थी लेकिन स्पार्टकस का विद्रोह और फ्रांस की क्रांति ने दासत्व को खत्म कर दिया। इसके बाद 1 मई 1886 में शिकागो का आंदोलन हुआ। उसमें मजदूर, किसान, साधारण इंसान के व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पहचान को वजूद में ला कर खड़ा कर दिया। भले ही आज भी मजदूर अपना श्रम बेचने वाले कहलाते हैं लेकिन श्रम पर अब उनका अधिकार है।