makreel yashapal essay
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गर्मी का मौसम था। मक्रील की सुहावनी पहाड़ी। आबोहवा में छुट्टी के दिन बिताने के लिए आई सम्पूर्ण भद्र जनता खिंचकर मोटरों के अड्डे पर, जहाँ पंजाब से आनेवाली सड़क की गाड़ियाँ ठहरती हैं - एकत्र हो रही थी। सूर्य पश्चिम की ओर देवदारों से छाई पहाड़ी की चोटी के पीछे सरक गया था। सूर्य का अवशिष्ट प्रकाश चोटी पर उगे देवदारों से ढकी आक की दीवार के समान जान पड़ता था।
ऊपर आकाश में मोर-पूँछ के आकार में दूर-दूर तक सिंदूर फैल रहा था। उस गहरे अर्गवनी रंग के पर्दे पर ऊँची, काली चोटियाँ निश्चल, शांत और गंभीर खड़ी थीं। संध्या के झीने अँधेरे में पहाड़ियों के पार्श्व के वनों से पक्षियों का कलरव तुमुल परिमाण में उठ रहा था। वायु में चीड़ की तीखी गंध भर रही थी। सभी ओर उत्साह-उमंग और चहल-पहल थी। भद्र महिलाओं और पुरुषों के समूह राष्ट्र के मुकुट को उज्ज्वल करने वाले कवि के सम्मान के लिए उतावले हो रहे थे।
यूरोप और अमरीका ने जिसकी प्रतिभा का लोहा मान लिया, जो देश के इतने अभिमान की संपत्ति है, वही कवि मक्रील में कुछ दिन स्वास्थ्य सुधारने के लिए आ रहा है। मक्रील में जमी राष्ट्र-अभिमानी जनता पलकों के पाँवड़े डाल, उसकी अगवानी के लिए आतुर हो रही थी।
प्रात: हजामत के लिए गरम पानी लानेवाले नौकर ने जब देखा - कवि आईने के सामने कुर्सी पर निश्चल बैठा है, परंतु आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया और उसके बीच का भाग गायब है। चौखट में फँसे आईने के लंबे-लंबे भाले के-से टुकड़े मानो दाँत निकाल कर कवि के निर्जीव शरीर को डरा रहे हैं।
कवि का मुख कागज की भाँति पीला और शरीर काठ की भाँति जड़ था। उसकी आँखें अब खुली थीं, उनमें से जीवन नहीं, मृत्यु झाँक रही थी। बाद में मालूम हुआ, रात के पिछले पहर कवि के कमरे से अनेक बार 'आता हूँ, आता हूँ' की पुकार सुनाई दी थी।
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