History, asked by ankitparihar6666, 7 months ago

Malwa ki lok kalakar vivechana kijiye​

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Answered by najreenmukangmailcom
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मालवा की लोक-कलाओं यथा लोक-साहित्य, लोक-नृत्य, लोक-संगीत और लोक मंच के क्षेत्र में उज्जैन की स्थिति अनूठी है। उज्जैन मालवी बोली और मालवी लोक-संस्कृति का केन्द्र-स्थल है। शहरों और गाँवों का भेद जैसे यहाँ तिरोहित है। यहाँ के मंदिरों, क्षिप्रा-तट और विभिन्न मोहल्लों में ऋतुपर्वों, धार्मिक और सामाजिक अवसरों पर आयोजित मेलों-त्यौहारों और पारम्परिक लोकोत्सवों में मालव जनपद के अंतर्मन की झलक दिखायी देती है। उत्सवधर्मी लोकमानस की विभिन्न प्रवृत्तियाँ मालवी लोक-कलाओं को निरंतर विकसित और समृद्ध बनाती रही है।

उज्जैन लोक-कलाकारों का केन्द्र-स्थल रहा है। चितेराबाखल (चित्रकारों के मोहल्ले) में सिद्धहस्त चितेरे रहा करते थे। ये कलाकार भित्ति-चित्रों, मांडनों, वस्त्र-चित्रों, आनुष्ठानिक आकृतियों और गुदानाकृतियों का रूपांकन सदियों से वंश-परम्परानुसार किया करते हैं। उज्जैन के अतिरिक्त सम्पूर्ण मानव अंचल इनका कार्य-क्षेत्र था। भैरोगढ़ (उज्जैन) के छीपों की वंशानुगत कला रंग-बिरंगी चटकीले रंगों वाली मालवी वेशभूषा में आज भी देखी जा सकती है। होली, सावन, गणगौर, संजा पर्व जैसे- ऋतुपर्वों पर आयोजित मालवी लोक-नृत्यों की एकल और सामूहिक नृत्य-गतियाँ, लय और ताल, मन को बाँध लेती है।

नवरात्रि के दिनों में गरबा-उत्सवों की धूम मची रहती है। गरबा-पर्व के इन गीतों नृत्यों में जन-मन की उमंग-उल्लास प्रतिबिम्बित है। लोक-जीवन का आशु-कवित्व भक्ति और श्रंगारपरक नई-नई गर्बियाँ (गरबा-गीत) रचना रहा है। गुजराती लोक पर्व ‘गरबा’ में जहाँ महिला वर्ग की प्रधानता है, वहाँ उज्जयिनी में आयोजित इन उत्सवों में पुरुष वर्ग की प्रधानता देखने को मिलती है। इन गर्बी गीतों की रचना करने में कई माचकारों को प्रसिद्धि मिली है। गुरु गोपालजी, चंचल पुरीजी और रामचन्द्र गुरु द्वारा रचित सैकड़ों गर्बियाँ हस्तलिखित रूप में आज भी उपलब्ध हैं।

उज्जैन और मालवा के विभिन्न क्षेत्र में समय-समय पर लोकोत्सवों में तरह-तरह के स्वांग रचाये जाते रहे हैं। उज्जयिनी के वैष्णव मंदिरों में होने वाले ‘ढाराढारी’ के खेलों की एक सुदीर्घ परम्परा है। राजस्थान और मालवा में ढारी जाति के लोक कृष्ण के जीवन चरित की अभिनयात्मक प्रस्तुति कर अपनी आजीविका का निर्वाह करते रहे हैं। उज्जैन के बहादुरगंज, अब्दालपुरा, नयापुरा, सिंहपुरी और कार्तिक चौक क्षेत्र में स्थापित विभिन्न वैष्णव मंदिरों में ‘ढाराढारी’ के खेल विशाल पैमाने पर आयोजित होते थे। ये खेल अपने जमाने में सारे मालवा में प्रसिद्ध थे। अब्दालपुरे की माच परम्परा के गुरु फकीरचन्दजी और माचकार हीरालाल विप्र द्वारा माच के खेलों की रचना के पूर्व ‘ढाराढारी’ के खेलों का प्रदर्शन किया जाता था। ऊँचे ओटले (चबूतरे) पर दरी बिछाकर ‘ढाराढारी’ का खेल किया जाता था। कोई नंद बनता था और कोई यशोदाजी/कृष्णजी की बाल-लीला के बीच, स्वरूप धारण करके पूतना आती थी। विषमय स्तनपान कराने वाली पूतना का स्तनपान कृष्णजी ऐसे करते कि वह निष्प्राण होकर धराशायी हो जाती और जन-मन आनंदित हो उठता। ‘ढाराढारी’ गाते, नाचते और अपनी अभिनय कला के लिये खूब इनाम पाते।

स्वांग और नकल की प्रवृत्तियाँ मालवा के जन-जीवन में रंग रस का संचार करती रही हैं। अभिनय कला में पटु नकल-स्वांग, करने वाले ग्रामीण कलाकारों के बारे में ‘मेमायर्स ऑफ सेन्ट्रल इण्डिया’ पुस्तक में सर जान मालकम ने विशद् वर्णन किया है। दूंदाले गणपति (लम्बी तोंद वाले गणेशजी) के स्वांग रचने वाले बलूवा नामक ब्राह्मण कलाकार की उन्होंने भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

तुर्राकलंगी नामक लोकानुरंग की एक और प्रवृत्ति उज्जैन और समग्र मालव-प्रदेश में प्रचलित रही है। तुर्राकलंगी अध्यात्म विषयक काव्य-गायन की प्रतिस्पर्धामूलक शैली है। तुर्रा वाले अपने को शिवजी का अनुयायी मानते हैं और कलंगी वाले शक्ति के उपासक। इन दोनों दलों (अखाड़ों) के बीच होने वाले पद्यबद्ध संवादों के काव्य-गायन रात-रात भर हुआ करते थे, जिनमें देवी-देवताओं की स्तुति, गुरु और खलीफाओं का गुणगान और चंग-ढोलक पर ‘सवाल-जवाब’ चलते थे। हजारों की संख्या में जनता जुटती थी। इन प्रदर्शनों के लिये तुर्राकलंगी के अखाड़े अपनी तैयारियाँ करते थे। बैठक के आयोजन ‘गम्मत’ कहलाते थे और इन गम्मतों में काव्य-रचना संगीत, प्रस्तुति और ‘टेक झेलने’ की कला में दल के कलाकार दक्षता प्राप्त करते थे।

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