मन की देहरी का दीप
मन में इक विकासा है, चहुँदिश इक अन्धकार सा है,
जन गण को आरोपित्करता, हृदय में इक संचार सा है।
मन के घने ितिमको बस इक लौदिखानबाक़ी है,
मेरे मन की देहरी पर इक दीप जलाना बाकी है।
छल और नैतिकतने मध्य में छिड़हुआ इक डिंसा है,
प्रत्यक्ष खड़ा वो दानव मेरे हृदय का ही प्रतिबिम्ब सा है।
भीतर छुपे उस रावण पर प्रतिघात लगाना बाक़ी है,
मेरे मन की देहरी पर इक दीप जलाना बाक़ी है।
निश्चित हर इक मानव के, मन में केवल तम ही नहीं,
किसक्रिण में ईश सुशोभिहैं, सम्मोहित किाहै अधम कहीं।
मन के निर्णय में राम-सकल अिभदान बढाना बाक़ी है,
मेरे मन की देहरी पर इक दीप जलाना बाक़ी है।
हर राह सरल हो जीवन में, यह किचिखम्भव ही नहीं,
राह सत्य की सदा किठन, िमलेमिथ्य का पथ सहज से ही।
नानकवाणी को पथदर्शनसिरमौखनाना बाक़ी है,
मेरे मन की देहरी पर इक दीप जलाना बाक़ी है।
मन मेरा जो हो उज्ज्वल, जग-में सम्भव अंधकार नहीं,
मेरे-मन से ही हो आरंभितउस उज्ज्वल जग कीकिरणमयी।
अंत: करण में दीप-पर्व का, ये सार समाना बाकी है,
मेरे मन की देहरी पर इक दीप जलाना बाक़ी है।
-डॉ प्रशांत भटआई वांट दिस मीनिंग इन इंग्लिश
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Wow! Very nice poetry.
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