मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना।
इसका अर्थ
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मन रे तन कागद का पुतला।
Explanation:
- याह इक शां त रास है
- ये रस राशो मुख्य अखिरी रस मन जात है
- बोहत सरे मुनि ग्यानी लोगन न शान्त रस को अलग राखा
- शान्त रस दुःख, भाव भाव से परे है
- याह इक तर का सम भव है
- याह रस मोक्ष या अधयातम से पेदा हुआ है
- इसीलिए इस शां त राश काहा है
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यह कबीर के पदों में से एक प्रमुख पद है, इसमें कबीर ने शरीर की नश्वरता को जानकर उसके प्रति मोह को छोड़कर परमात्मा में मन लगाने को कहा है।
भावार्थ — कबीर कहते हैं हे मानव तू अपने तन अर्थात शरीर पर इतना गुमान क्यों करता है, यह तो कागज के पुतले के समान है जो पानी की बूंदों से क्षणभर में नष्ट हो सकता है। गल सकता है, इसलिए अपने इस नश्वर तन पर गुमान ना कर और तन के प्रति मोह को छोड़कर अपने मन को परमात्मा के चिंतन में लगा।
कबीर के कहने का तात्पर्य है कि यह तन तो मिट्टी के समान है, नश्वर है। इसको एक ना एक दिन नष्ट हो जाना है। पानी रूपी बूंदे अर्थात जीवन रूपी कष्टों, दुखों और संघर्ष में एक ना एक दिन नष्ट हो ही जाना है, तो इसके प्रति अनुराग को छोड़कर परमात्मा के प्रति अनुराग पैदा करे।
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