Hindi, asked by Asfa02, 6 months ago

मनुष्य की इंद्रियों का सामर्थ्य अपने शब्द मे लिखिए--​

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Answered by Anonymous
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अर्थ- अपनी इन्द्रियों को वश में रखना ... आज कल अधिकाँश मनुष्य इसी प्रकार के ...

Answered by jha96949
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इंद्रियों का सदुपयोग करना सीखें

आत्म-कल्याण के मार्ग में इन्द्रियों की प्रबलता को प्रमुख शत्रु माना है। इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सुखों के प्रति राग और द्वेष मिलकर मनुष्य को दिग्भ्रान्त करते रहते हैं। यही कारण है कि बाह्य-जीवन की नश्वरता को स्वीकार करते हुये भी वह आत्मा के उद्धार की बात तक नहीं सोच पाता है। शास्त्रों में इस विषय में अधिक जोर दिया गया है कि मनुष्य शरीर रहते हुये अपने स्वरूप का ज्ञान कर लेना चाहिये अन्यथा पुनः युग युगान्तरों तक अनेकों घृणित योनियों में विचरण करना पड़ता है। तब कहीं दुबारा मानव-शरीर प्राप्त करने का संयोग मिलता है। इस दुर्लभ संयोग को यों ही बर्बाद कर देना बुद्धिमानी की बात नहीं है।

अग्नि के तेजस्वी स्वरूप को देखने के लिये ऊपर की सारी राख हटानी पड़ती है। अन्धकार फल रहा हो, तो किसी भी वस्तु का साफ -साफ स्वरूप नहीं दिखाई पड़ता। उसी प्रकार अन्तःकरण के मल, विक्षेप बने रहें तो आत्म-ज्ञान प्राप्त करना सम्भव न होगा। मानसिक चंचलता और आन्तरिक मलिनता का उदय इन्द्रियों के असंयम से होता है। इसलिये गीताकार ने लिखा है-

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोनं वशमागच्छंतौ हास्य परिपन्थिनौ॥

अर्थात्- मनुष्य का चाहिये कि इन्द्रियों के अर्थ व उनमें सन्निहित जो राग और द्वेष हैं, उन दोनों के वश में नहीं होवे, क्योंकि आत्म-कल्याण के मार्ग में विघ्न करने वाले ये दोनों ही प्रबल शत्रु हैं।

जिन इन्द्रियों को आत्म-विकास की रुकावट मानते हैं, यथार्थ में हमारे आत्म-कल्याण का कारण भी वही हैं। शत्रु के रूप में तो वे अपने बहिर्मुखी स्वभाव के कारण परिलक्षित होती हैं। जब तक इनका उपयोग बाह्य-जीवन के सुखोपभोग में करते हैं, तब तक यह शत्रु हैं, किन्तु जैसे ही इन्हें आत्म-ज्ञान व आत्म-विकास की ओर मोड़ देते हैं, तो इनके सत्परिणाम भी दिखाई पड़ने लगते हैं। परेशानी तभी तक रहती है, जब तक ये अपनों अर्थों में पूर्ण स्वच्छन्द होती हैं। सदुपयोग करने लगें तो इन्हीं से महत्वपूर्ण आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि इनकी स्वतन्त्र विचरण की बहिर्मुखी प्रवृत्ति पर अंकुश बनाये रहें।

किसी घोड़े को बेलगाम छोड़ दें तो वह अपने सवारी को गड्ढे में गिरा कर ही रहेगा। सवारी की सुरक्षा सदैव इस बात पर निर्भर रहती है कि वह घोड़े के नियन्त्रण को ढीला न करे। इससे जिस दिशा में, जितनी दूर जाना चाहेंगे, वही घोड़ा सुरक्षा-पूर्वक आपको पहुँचा देगा। जिह्वा-इन्द्रिय को ही लीजिये। भाँति-भाँति के स्वाद युक्त व्यंजनों की उसे सदैव लालसा बनी रहती है। चटोरपन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण वह स्वास्थ्य को बर्बाद करती है। जिह्वा का उपयोग वस्तुतः इसलिए है कि उससे खाद्य या अखाद्य की पहिचान करते रहें। अधिक कड़ुवा खा लेने पर जीभ छटपटाने लगती है। यह उसकी स्वाभाविक अभिव्यक्ति है कि यह अखाद्य है, उदरस्थ कर जाने का दुष्परिणाम तो बाद में मिलेगा। पाचन संस्थान को खराबी से होने वाले दुष्परिणामों से बचाने के लिए ही जीभ की तड़फड़ाहट उठी थी। किन्तु इसका लाभ तभी है जब हम खाद्य और अखाद्य के भेद को स्वीकार करें, उस पर नियंत्रण करें।

आँखों का कार्य है सौंदर्य-दर्शन । आत्मा के उद्गम, परमात्मा के सौंदर्य को अन्यतम कहा जाता है। उस आन्तरिक सौंदर्य के साक्षात्कार की लालसा स्वाभाविक है। हर किसी को सुन्दर वस्तुयें देखने की इच्छा बनी रहती है, किन्तु अधिकाँश होता यह है कि लोग बाह्यरूप, रंग, चमक-दमक को ही सौंदर्य मानते हैं। बात यहीं तक रहती तब भी गनीमत थी, किन्तु स्वार्थपूर्ण और वासनात्मक दृष्टिकोण के द्वारा लोग आन्तरिक सौंदर्य पर पर्दा डाल देते हैं। विराट् का सौंदर्य इतना अभूतपूर्व और आह्लादमय है कि एक बार उसकी अनुभूति कर पायें तो आँखें सदैव उसे पाने के लिये ही तरसती रहेंगी। इसी दृष्टि से इनकी उपयोगिता भी है।

इस संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब विधिवत, वैज्ञानिक तथ्य पर सन्निहित है। इस विज्ञान को समझने के लिए इन्द्रियों के विषय-विकारों से दूर रहना परमावश्यक है। इन्द्रियों में आसक्त हुआ व्यक्ति कभी अध्यात्म-विज्ञान की ओर उन्मुख नहीं हो सकता। उसकी सारी चेष्टायें इन्हीं कुत्सित, घृणित, अदूरदर्शी, क्षणिक सुखोपभोग के आस-पास ही चक्कर लगाया करती हैं। फलतः विराट् के साथ आत्मीयता स्थापित करने की कभी भावना तक नहीं बन पाती। तुलसीदासजी ने मानस में लिखा है-

इन्द्रिय द्वार झरोखा नाना, तहँ-तहँ सुर बैठे करि थाना।

आवत देखहिं विषय बयारी, ते हठि देहिं कपाट उघारी।

जब सो प्रभंजन उर गृह जाई, तबहिं दीप विज्ञान बुझाई। इन्द्रिय सुरन्ह न ज्ञान सोहाई, विषय भोग पर प्रीति सदाई।

अर्थात् - अनियन्त्रित इंद्रियां बलात् विषयों की और खींच ले जाती हैं। ज्ञान-विज्ञान की बात यों ही रखी रह जाती है।

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