Social Sciences, asked by pinkimaanindia, 4 months ago

मनुष्य क्षेत्र की परिस्थिति को कैसे प्रभाव करता है​

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Answered by sexyboy92
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पर्यावरण और पारिस्थितिकी संकट मौजूदा दौर के ऐसे विषय हैं जिन पर दुनिया भर में सर्वाधिक बहस-मुबाहसे हो रहे हैं। यह होना जरूरी भी है क्योंकि मानव का प्राकृतिक परिवेश यानी पर्यावरण खतरे में है और यह खतरा कोई छोटा-मोटा खतरा नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता पर आसन्न ऐसा खतरा है जो पूरी की पूरी सभ्यता को एक दिन लील सकता है। विकास के क्रम में मानव ने प्राकृतिक परिवेश का ऐसा यांत्रिकीकरण किया है कि मनुष्य खुद ही प्रकृति के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा हो गया है। प्रकारान्तर से यह चुनौती खुद मनुष्य के सामने है, क्योंकि पर्यावरण और उसमें मौजूद पारिस्थितिकी-तन्त्र पर संकट का नकारात्मक असर अन्ततः मनुष्य पर ही पड़ता है। किसी जीव से लेकर किसी नदी तक के विलुप्त होने का पहला असर मानव पर ही पड़ेगा। आज विश्व भर में पर्यावरण बचाने की मुहिम चल रही है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कुछ हद तक यह समझ लिया गया है कि मानवीय हस्तक्षेप से पर्यावरण को खतरे में डालने का अर्थ है मानव का खुद को खतरे में डालना। पर्यावरण संकट ऐसा भस्मासुर है जो मनुष्य ने खुद ही तैयार किया है और अब खुद ही परेशान है।

पर्यावरण का अर्थ है— मानव के चारों तरफ का प्राकृतिक आवरण या परिवेश। जो भी प्रकृति प्रदत्त चीजें हमारे चारों ओर मौजूद हैं, मसलन— वायु, जल, मृदा, वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु आदि सभी पर्यावरण के घटक हैं। इनसे मिलकर पर्यावरण की रचना होती है। पर्यावरण की ही वृहत्तर अवधारणा को हम पारिस्थितिकी की संज्ञा देते हैं। पारिस्थितिकी के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं— पहला, प्रकृति और जीवों के बीच सम्बन्ध और दूसरा, प्रकृति में पाए जाने वाले विभिन्न जीवों के मध्य सम्बन्ध। मानव और जीवों के बीच एक अपरिहार्य अन्तर्सम्बन्ध है जो पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है।

पर्यावरण शब्द जीवों की अनुक्रिया को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक तथा जैवीय परिस्थितियों का योग है। इसी को जीवमण्डल की भी संज्ञा देते हैं। इस जीवमण्डल में वायुमण्डल, थलमण्डल व जलमण्डल आते हैं जिसमें अनेक प्रकार के प्राणी तथा पादप विचरण करते हैं। सभी प्रकार के जीव और भौतिक तत्त्व अपनी क्रियाओं से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्राणियों के इस अन्तर्स म्बन्ध से पारिस्थितिकी तैयार होती है। पारिस्थितिकी को सर्वप्रथम परिभाषित करने का श्रेय जर्मन जीव विज्ञानी अर्नस्ट हेकेल को है। उनके मुताबिक, वातावरण और जीव समुदाय के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं। इससे जीव और उनके आसपास के वातावरण में सम्पूर्ण जैविक और अजैविक संघटकों के अध्ययन का बोध होता है।

दुनिया में जितने भी प्राणी मौजूद हैं, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहते हों, उनकी आपस में एक-दूसरे पर निर्भरता अनिवार्य है। यहाँ तक कि धरती पर मौजूद भौतिक एवं जैविक घटकों के मध्य भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्रत्येक जीव को उसका भौतिक पर्यावरण प्रभावित करता है। प्रत्येक प्राणी भोजन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर है। जो जीव मांसाहारी हैं वे प्रत्यक्षतः तो पेड़-पौधों पर निर्भर नहीं हैं, लेकिन जिन जन्तुओं को वे खाते हैं, उनका भोजन जरूर पेड़-पौधे हैं। जैसे— शेर, हिरण, खरगोश आदि जीवों को खाता है और हिरण अथवा खरगोश अपने भोजन के लिए पौधों पर निर्भर होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि शेर अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति पर निर्भर है।

वनस्पति अपना भोजन निर्मित करने के लिए सूर्य का प्रकाश तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड, जल आदि लेकर प्रकाश-संश्लेषण करते हैं। शाकाहारी जन्तु इन पौधों को खाते हैं, मासांहारी जन्तु छोटे जन्तुओं को खाते हैं। इस प्रकार सभी भौतिक तथा जैविक कारकों में आपस में सम्बन्ध होता है। सभी जीव-जन्तु एक-दूसरे समुदाय को और साथ ही अपने आसपास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं। इनमें आपस में एक छोटे प्राणियों से लेकर जन्तु समाज एवं मानव समाज के बीच एक पारिस्थितिकी-तन्त्र अथवा ‘ईको-सिस्टम’ निर्मित होता है। जब यह श्रृंखला टूटती है तो यह तन्त्र प्रभावित होता है। औद्योगीकरण, मशीनीकरण, जंगलों की कटाई, नदियों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से इन सभी जीव समुदायों में से जब कोई समुदाय प्रभावित होता है तो यह श्रृंखला टूटती है और पारिस्थितिकी सन्तुलन बिगड़ता है। इस पारिस्थितिकी में मानव ही सर्वोत्तम प्राणी है और प्रकृति की व्यवस्था में सर्वाधिक दखल उसी का है। मानव समुदाय ऐसा है जो अन्य समुदायों को नुकसान पहुँचाकर अपना विकास करता है, अतः उसी की यह जिम्मेदारी है कि यह तन्त्र टूटने न दिया जाए। विकास और प्रकृति में सामंजस्य ही पारिस्थितिकी-सन्तुलन को बनाए रखने में मददगार हो सकता है

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