"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परन्तु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे॥.
Answers
Explanation:
भावार्थ :
व्याख्या
प्रस्तुत पाठ में कवि मैथलीशरण गुप्त ने सही अर्थों में मनुष्य किसे कहते हैं उसे बताया है। कविता परोपकार की भावना का बखान करती है तथा मनुष्य को भलाई और भाईचारे के पथ पर चलने का सलाह देती है।
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
कवि कहते हैं मनुष्य को ज्ञान होना चाहिए की वह मरणशील है इसलिए उसे मृत्यु से डरना नहीं चाहिए परन्तु उसे ऐसी सुमृत्यु को प्राप्त होना चाहिए जिससे सभी लोग मृत्यु के बाद भी याद करें। कवि के अनुसार ऐसे व्यक्ति का जीना या मरना व्यर्थ है जो खुद के लिए जीता हो। ऐसे व्यक्ति पशु के समान है असल मनुष्य वह है जो दूसरों की भलाई करे, उनके लिए जिए। ऐसे व्यक्ति को लोग मृत्यु के बाद भी याद रखते हैं।
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