Hindi, asked by saiharshithk24, 5 months ago

मनुष्य प्रार्थना कब करता है?​

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Answered by sanjay047
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Explanation:

जीवन मंत्र डेस्क. प्रार्थना...सीधे शब्दों में निवेदन। जब संसार के समक्ष झुककर हम कुछ मांगते हैं तो वो प्रार्थना नहीं, सहज निवेदन होता है। लेकिन, जब यही निवेदन संसार से परे, परमात्मा को मनाने के लिए हो तो वो प्रार्थना बन जाता है। व्याकरण और ग्रंथों ने प्रार्थना के कई अर्थ बताए हैं, प्रार्थना यानी पवित्रता के साथ किया गया अर्चन। प्रार्थना का एक अर्थ परम की कामना भी है।

जब मनुष्य संसार की धारा को छोड़ परमात्मा की और उल्टा चल दे, समझो मन में प्रार्थना घट गई। सारी वासनाओं से उठकर जब हम सिर्फ उस परमानंद को पाने की मानस चेष्टा करते हैं, प्रार्थना हमारे भीतर गूंजने लगती है। प्रार्थना, मंत्रों का उच्चारण मात्र नहीं है, मन की आवाज है, जो परमात्मा तक पहुंचनी है। अगर मन से नहीं है, तो वो मात्र शब्द और छंद भर हैं। प्रार्थना का उत्स हृदय है। हम अगर उसको मन से नहीं पुकारेंगे, तो आवाज पहुंचेगी ही नहीं। उस तक बात पहुंचानी है तो मुख बंद कीजिए, हृदय से बोलिए। वो मन की सुनता है, मुख की नहीं।

प्रार्थना का पहला कायदा है, वासना से परे हो जाएं। संतों ने कहा है वासना जिसका एक नाम “ऐषणा” भी है, तीन तरह की होती है, पुत्रेष्णा, वित्तेषणा और लोकेषणा। संतान की कामना, धन की कामना और ख्याति की कामना। जब मनुष्य इन सब से ऊपर उठकर सिर्फ परमतत्व को पाने के लिए परमात्मा के सामने खड़ा होता है, प्रार्थना तभी घटती है। उस परम को पाने की चाह, हमारे भीतर गूंजते हर शब्द को मंत्र बना देती है, वहां मंत्र गौण हो जाते हैं, हर अक्षर मंत्र हो जाता है।जीवन मंत्र डेस्क. प्रार्थना...सीधे शब्दों में निवेदन। जब संसार के समक्ष झुककर हम कुछ मांगते हैं तो वो प्रार्थना नहीं, सहज निवेदन होता है। लेकिन, जब यही निवेदन संसार से परे, परमात्मा को मनाने के लिए हो तो वो प्रार्थना बन जाता है। व्याकरण और ग्रंथों ने प्रार्थना के कई अर्थ बताए हैं, प्रार्थना यानी पवित्रता के साथ किया गया अर्चन। प्रार्थना का एक अर्थ परम की कामना भी है।

जब मनुष्य संसार की धारा को छोड़ परमात्मा की और उल्टा चल दे, समझो मन में प्रार्थना घट गई। सारी वासनाओं से उठकर जब हम सिर्फ उस परमानंद को पाने की मानस चेष्टा करते हैं, प्रार्थना हमारे भीतर गूंजने लगती है। प्रार्थना, मंत्रों का उच्चारण मात्र नहीं है, मन की आवाज है, जो परमात्मा तक पहुंचनी है। अगर मन से नहीं है, तो वो मात्र शब्द और छंद भर हैं। प्रार्थना का उत्स हृदय है। हम अगर उसको मन से नहीं पुकारेंगे, तो आवाज पहुंचेगी ही नहीं। उस तक बात पहुंचानी है तो मुख बंद कीजिए, हृदय से बोलिए। वो मन की सुनता है, मुख की नहीं।

प्रार्थना का पहला कायदा है, वासना से परे हो जाएं। संतों ने कहा है वासना जिसका एक नाम “ऐषणा” भी है, तीन तरह की होती है, पुत्रेष्णा, वित्तेषणा और लोकेषणा। संतान की कामना, धन की कामना और ख्याति की कामना। जब मनुष्य इन सब से ऊपर उठकर सिर्फ परमतत्व को पाने के लिए परमात्मा के सामने खड़ा होता है, प्रार्थना तभी घटती है। उस परम को पाने की चाह, हमारे भीतर गूंजते हर शब्द को मंत्र बना देती है, वहां मंत्र गौण हो जाते हैं, हर अक्षर मंत्र हो जाता है।

दूसरा कायदा है, प्रार्थना अकेले में नहीं करनी चाहिए, एकांत में करें। जी हां, अकेलापन नहीं, एकांत हो। दोनों में बड़ा आध्यात्मिक अंतर है। अकेलापन अवसाद को जन्म देता है, क्योंकि इंसान संसार से तो विमुख हुआ है, लेकिन परमात्मा के सम्मुख नहीं गया। एकांत का अर्थ है आप बाहरी आवरण में अकेले हैं, लेकिन भीतर परमात्मा साथ है। संसार से वैराग और परमात्मा से अनुराग, एकांत को जन्म देता है, जब एक का अंत हो जाए. आप अकेले हैं लेकिन भीतर परमात्मा का प्रेम आ गया है तो समझिए आपके जीवन में एकांत आ गया। इसलिए अकेलेपन को पहले एकांत में बदलें, फिर प्रार्थना स्वतः जन्म लेगी।

प्रार्थना का तीसरा कायदा, इसमें परमात्मा से सिर्फ उसी की मांग हो।प्रार्थना सांसारिक सुखों के लिए मंदिरों में अर्जियां लगाने को नहीं कहते, जब परमात्मा से उसी को मांग लिया जाए, अपने जीवन में उसके पदार्पण की मांग हो, वो प्रार्थना है। इसलिए. अगर आप प्रार्थना में सुख मांगते हैं, तो सुख आएगा, लेकिन ईश्वर खुद को आपके जीवन में नहीं उतारेगा। जब आप परमात्मा से उसी को अपने जीवन में उतरने की मांग करेंगे तो उसके साथ सारे सुख “बाय डिफाल्ट” ही आ जाएंगे।

सो, प्रार्थना कीजिए, क्योंकि जीवन में शांति का एक ही मार्ग है परमात्मा। और उस तक जाने का भी एक ही मार्ग है प्रार्थना।

दूसरा कायदा है, प्रार्थना अकेले में नहीं करनी चाहिए, एकांत में करें। जी हां, अकेलापन नहीं, एकांत हो। दोनों में बड़ा आध्यात्मिक अंतर है। अकेलापन अवसाद को जन्म देता है, क्योंकि इंसान संसार से तो विमुख हुआ है, लेकिन परमात्मा के सम्मुख नहीं गया। एकांत का अर्थ है आप बाहरी आवरण में अकेले हैं, लेकिन भीतर परमात्मा साथ है। संसार से वैराग और परमात्मा से अनुराग, एकांत को जन्म देता है, जब एक का अंत हो जाए. आप अकेले हैं लेकिन भीतर परमात्मा का प्रेम आ गया है तो समझिए आपके जीवन में एकांत आ गया। इसलिए अकेलेपन को पहले एकांत में बदलें, फिर प्रार्थना स्वतः जन्म लेगी।

प्रार्थना का तीसरा कायदा, इसमें परमात्मा से सिर्फ उसी की मांग हो।प्रार्थना सांसारिक सुखों के लिए मंदिरों में अर्जियां लगाने को नहीं कहते, जब परमात्मा से उसी को मांग लिया जाए, अपने जीवन में उसके पदार्पण की मांग हो, वो प्रार्थना है। इसलिए. अगर आप प्रार्थना में सुख मांगते हैं, तो सुख आएगा, लेकिन ईश्वर खुद को आपके जीवन में नहीं उतारेगा। जब आप परमात्मा से उसी को अपने जीवन में उतरने की मांग करेंगे तो उसके साथ सारे सुख “बाय डिफाल्ट” ही आ जाएंगे।

सो, प्रार्थना कीजिए, क्योंकि जीवन में शांति का एक ही मार्ग है परमात्मा। और उस तक जाने का भी एक ही मार्ग है प्रार्थना।

Answered by SidakSupperComputer
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Explanation:

मनुष्य प्रार्थना घोर समस्या आने पर करता है

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