मतदान की अनिवार्यता पर निबंध
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भारत में चुनाव सुधारों को लेकर बहुत ज्यादा संजीदगीं नहीं है। ऐसे में गांधीवादी अन्ना हजारे का यह सुजाव कि मतदाताओं को प्रत्याशी को खारिज करने का हक और उम्मीद पर खरा नहीं उतरने पर बीच मे वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए, तमाम राजनीतिकों को ये मांगें रास नहीं आ रही हैं। इसलिए इन मांगों के बजाए राजनीतिक दलों की दलील है कि पहले मतदान को अनिवार्य किया जाए। क्योंकि हमारे देश में मतदान का औसत प्रतिशत बेहद कम है। जहां ज्यादातर पचास फीसदी मतदाता अपने प्रतिनिधि का चुनाव करते हों, वहां किसी क्षेत्र के उम्मीदवारों को नकारने अथवा वापस बुलाने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है। ये अधिकार बड़े स्तर पर धनराशि की फिजूलखर्ची का भी कारण बनेगें। लिहाजा पहले मतदान की अनिवार्यता के प्रति मतदाताओं को जागरूक किया जाए, ताकि विकल्प की सार्थकता साबित हो सके।
मतदान की अनिवार्यता कोई नया मुद्दा नहीं हैं, गुजरात सरकार ने देश मे पहली बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत करने की दृष्टि से मतदान की अनिवार्यता संबंधी विधेयक लाकर एक साहसिक व प्रशंसनीय कदम 2010 में उठाया था। विधेयक के कानून में तब्दील होते ही यहां नगरीय निकाय और ग्राम पंचायतों में प्रत्येक मतदाता को मतदान करना बाध्यकारी बना दिया गया था। वोट न डालने की स्थिति में जब मतदाता को दण्डित करने का प्रावधान इस विधेयक में है तो उसे उन उम्मीदवारों को नकारने का भी अधिकार मिलना चाहिए था जो लोक हितकारी साबित नहीं हो पाते। किंतु इस दृष्टि से इस विधेयक में कोई उपाय लागू नहीं किए गए थे। कांग्रेस इस विधेयक का सिर्फ इसलिए विरोध कर रही है क्योंकि यह विधेयक उस सरकार ने पारित किया है जो भाजपा शासित है।
किसी भी देश के लोकतंत्र की सार्थकता तभी है जब शत-प्रतिशत मतदान से जनप्रतिनिधि चुने जाएं। मौजूदा दौर में हमारे यहां मत-प्रतिशत 35-40 से 65-70 तक रहता है। आतंकवाद की छाया से ग्रसित रहे पंजाब और जम्मू-कश्मीर में यह प्रतिशत 20 तक भी रहा है। लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बहाली के साथ इन प्रदेशों में भी मतदान में उम्मीद से ज्यादा इजाफा भी हुआ।