Social Sciences, asked by sohannagpurenagpure, 6 months ago

मध्य प्रदेश की जनजाति संस्कृति पर निबंध लिखिए​

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Answered by narayanishutosh
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Explanation:

भारत अनेक जातियों-जनजातियों, धर्म पंथों तथा संस्कृति संप्रदायों का भंडार है। थे, जिन्होंने गुरु दक्षिणा में अपना अँगूठा काटकर दे दिया था। भील स्वयं को प्रकृति-पुत्र कहते हैं। भील साहसी और पराक्रमी होते हैं तथा वे जीवट के पक्के व आत्माभिमानी होते हैं। वनों से उनका भावनात्मक जुड़़ाव है। भील जनजाति की अपनी अलग वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान, भाषा तथा जीवन शैली है। इनकी अपनी पृथक संस्कृति है जो लोक से बहुत ही गहराई से जुड़ी हुई है।

पानी में, कंकड़-पत्थर युक्त भूमि पर भी कम समय में पैदा होता है। भील जनजाति मांस के शौकीन होने के कारण उसकी आंशिक और आकस्मिक आपूर्ति के लिए मुर्गियाँ पालते हैं। इसके अतिरिक्त वे वनों से प्राप्त कंद, मूल, फल आदि को भी अपने भोजन में सम्मिलित करते हैं।

भील जनजातियों में शराब का व्यसन अत्यधिक है। भीलों का कोई भी पर्व, विवाह, जन्म-मृत्यु आदि आयोजन बिना शराब के पूरे नहीं होते हैं। विवाह में तो शराब अनिवार्य है। बीमारी पर देवी-देवताओं को तर्पण करने के लिए, जादू-टोने के प्रभाव से मुक्ति हेतु आत्माओं की संतुष्टि के लिए देव-बड़वा (देवों की सामूहिक पूजा) के अवसर पर शराब का प्रयोग किया जाता है। शराब के अतिरिक्त नशे के लिए भील ताड़ी भी पीते हैं। भील धूम्रपान के भी शौकीन होते हैं। भील जनजीवन में धूम्रपान का महत्वपूर्ण स्थान है। अतिथि को बीड़ी पिलाना इनके समाज में आतिथ्य का सूचक है।

भील जनजाति की वेशभूषा अत्यंत साधारण है, इनमें दिखावा नाम-मात्र का भी नहीं होता। भील पुरुषों की दैनंदिन वेशभूषा मात्र एक लँगोटी है तथा सिर पर फेंटा बाँधने का प्रचलन भी है। निर्धन भील वस्तुतः फेंटा न बाँध कर एक मीटर लंबा और एक फुट चौड़ा कपड़े का टुकड़ा लेकर सिर पर लपेट लेते हैं। उनकी इस वेशभूषा का प्रत्यक्ष संबंध आर्थिक स्थिति तथा बाह्य संपर्क से है। भील पुरुषों की अपेक्षा भील महिलाएँ वस्त्रों के प्रति सजग होती हैं। भील महिलाओं की वेशभूषा में सामान्यतः लुगड़ा, ओढ़नी, चोली तथा लँहगा सम्मिलित होता है। भील जनजाति सामान्यतः विपन्नता के कारण वस्त्रों पर अधिक व्यय नहीं कर पाते, किंतु साज-सज्जा में ये वनों से प्राप्त होने वाले फूलों-पत्तियों को श्रृंगार साधन बनाते हैं। विशेष अवसरों पर ये चाँदी के आभूषणों को धारण करते हैं।

भील जनजाति की लोक संस्कृति में चित्रांकन की परंपरा अत्यंत महत्वपूर्ण है। भील स्त्री-पुरुष शरीर को अलंकृत करने के लिए आभूषणों के अतिरिक्त गुदना का भी प्रयोग करते हैं। नारियाँ अपने हाथों से लेकर पैरों तक गुदना गुदवाती हैं। गुदना कतिपय जनजातियों में जातीय प्रतीक भी होता है। उदाहरणस्वरूप भील महिलाओं के द्वारा आँखों के सिरों पर दो आड़ी लकीरें गुदवाना भील होने का प्रतीक है। इतना ही नहीं यदि किसी स्त्री के शरीर पर गुदना न गुदा हो तोउस स्त्री के हाथ का पानी तक पीना वर्जित होता है। वास्तव में गुदना गुदवाने की प्रेरणा आदिवासियों को आदिमानवों द्वारा उत्कीर्ण गुहा-चित्रों से मिली है। अतः आदिवासी समाज में माथे से लेकर पैर की उँगलियों तक अनेक प्रकार का चित्रांकन गुदना के अंतर्गत किया जाता रहा है, किंतु आज इस समाज की लोक परंपरा समाप्ति की कगार पर आ खड़ी हुई है।

प्रकृति लोक-संगीत की जननी है। प्रकृति के साथ अंतर्किया करते हुए ही मानव ने कंठ और वाद्य संगीत का विकास किया है, जिसमें भील जनजाति का विशेष महत्व है। ढोल या मांदल और बाँसुरी की धुन पर भील इतना मधुर गाते हैं कि मन मुग्ध हो उठता है। भीलों के वाद्य यंत्रों में थाली भी शामिल है। नगाड़े का छोटा प्रारूप भी वे गले में लटकाकर हाट मेलों में गाते-बजाते हुए देखे जाते हैं। अतः भील जनजाति के सांस्कृतिक धरोहरों में गीत-संगीत सर्वोपरि है। इसके गायन द्वारा शाब्दिक चित्रण बड़े सहज भाव से व्यक्त होते हैं। प्राचीनकाल से ही गीत-संगीत भील जनजीवन का एक अभिन्न अंग रहा है, चाहे वह माँगलिक कार्य हो या उत्सव, देवी-देवताओं को मनाने के लिए कोई पूजा हो या किसी संस्कार, मेले या दैनिक कार्य करने का समय। वह अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति गीतों के रूप में करते हैं। जैसे - भील जनजाति में होली के अवसर पर भगोरिया हाट नामक उत्सव के समय गाया जाने वाला यह गीत उनकी मनोदशा का चित्रण करता है। वास्तव में भगोरिया हाट उत्सव विवाह योग्य जोड़े को मिलाने का कार्य करता है। निम्नांकित पंक्तियाँ इसी भावना को व्यक्त करती हैं -

"आरसी भालिने, सुरमो लोगाविने,

लाडी हेरने चाल्यो रे भाया।

हाथ माँ तेर्वायो गुलाल लीने,

घराली काजे लगाड़ा रे भाया।"3

इस गीत का आशय है कि "बालों को काढ़ कर (कंघी कर), सुरमा रचकर, लाडी (वधू) लाने जा रहा है रे भाई। त्यौहार के अवसर पर घरवाली (लाडी, वधू) को गुलाल लगाना है रे भाई।"

परिणय के परिप्रेक्ष्य में भगोरिया हाट भील आदिवासी संस्कृति की विशिष्टता है। आदिवासी बहुल मध्य प्रदेश में भीलों के अतिरिक्त अन्य किसी भी जनजाति में साप्ताहिक हाट-बाजार का वैवाहिक महत्व नहीं है।

लोक संस्कृति को जीवंत बनाने वाले भीलों में विवाह संस्कार का विशेष महत्व है। भीलों में विवाह से संबंधित दो प्रथाएँ उल्लेखनीय हैं - प्रथम तो वधू मूल्य की प्रथा है। वधू मुल्य वह राशि एवं वस्तुएँ हैं जो कि वर पक्ष के द्वारा वधू के अभिभावकों को दी जाती है। इस रूप में यह शेष समाज में प्रचलित दहेज प्रथा से विपरीत है। द्वितीय - सेवा-विवाह के रूप में घर जँवाई प्रथा है। भील जनजाति में विधवाओं व परित्यक्ताओं को पुनर्विवाह की अनुमति प्राप्त है।

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