मध्यकाल में सामाजिक संरचना में क्यों परिवर्तन हो रहा था ?
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यह प्रक्रिया प्राकृतिक चयन के सिद्धान्त पर आधारित है। आरंभिक समाजशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर ने जैविक परिवर्तन की भाँति ही सामाजिक परिवर्तन को भी कुछ आन्तरिक शक्तियों के कारण संभव माना है और कहा है कि उद्विकास की प्रक्रिया धीरे-धीरे निश्चित स्तरों से गुजरती हुई पूरी होती है।
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सामाजिक परिवर्तन का अर्थ:-
सामाजिक परिवर्तन के अन्तर्गत हम मुख्य रूप से तीन तथ्यों का अध्ययन करते हैं-
(क) सामाजिक संरचना में परिवर्तन,
(ख) संस्कृति में परिवर्तन एवं
(ग) परिवर्तन के कारक।
सामाजिक परिवर्तन:-
समाज के आधारभूत परिवर्तनों पर प्रकाश डालने वाला एक विस्तृत एवं कठिन विषय है। इस प्रक्रिया में समाज की संरचना एवं कार्यप्रणाली का एक नया जन्म होता है। इसके अन्तर्गत मूलतः प्रस्थिति, वर्ग, स्तर तथा व्यवहार के अनेकानेक प्रतिमान बनते एवं बिगड़ते हैं। समाज गतिशील है और समय के साथ परिवर्तन अवश्यंभावी है।
आधुनिक संसार में प्रत्येक क्षेत्र में विकास हुआ है तथा विभिन्न समाजों ने अपने तरीके से इन विकासों को समाहित किया है, उनका उत्तर दिया है, जो कि सामाजिक परिवर्तनों में परिलक्षित होता है। इन परिवर्तनों की गति कभी तीव्र रही है कभी मन्द। कभी-कभी ये परिवर्तन अति महत्वपूर्ण रहे हैं तो कभी बिल्कुल महत्वहीन। कुछ परिवर्तन आकस्मिक होते हैं, हमारी कल्पना से परे और कुछ ऐसे होते हैं जिसकी भविष्यवाणी संभव थी। कुछ से तालमेल बिठाना सरल है जब कि कुछ को सहज ही स्वीकारना कठिन है। कुछ सामाजिक परिवर्तन स्पष्ट है एवं दृष्टिगत हैं जब कि कुछ देखे नहीं जा सकते, उनका केवल अनुभव किया जा सकता है।
सामाजिक परिवर्तन के कुछ मुख्य स्रोत हैं। ये इस प्रकार
(1) खोज (Discovery) :
मनुष्य ने अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपनी समस्याओं को सुलझाने और एक बेहतर जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत तरह की खोज की है। जैसे शरीर में रक्त संचालन, बहुत सारी बीमारियों के कारणों, खनिजों, खाद्य पदार्थों, पृथ्वी गोल है एवं वह सूर्य की परिक्रमा करती है आदि हजारों किस्म के तथ्यों की मानव ने खोज की, जिनसे उनके भौतिक एवं अभौतिक जीवन में काफी परिवर्तन आया।
(2) अविष्कार (Invention) :
विज्ञान और प्रौद्यागिकी के जगत में मनुष्य के आविष्कार इतने अधिक हैं कि उनकी गिनती करना मुश्किल है। आविष्कारों ने मानव समाज में एक युगान्तकारी एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया है।
(3) प्रसार (Diffusion) :
सांस्कृतिक जगत के परिवर्तन में प्रसार का प्रमुख योगदान रहा है। पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, एवं भूमंडलीकरण जैसी प्रक्रियाओं का मुख्य आधार प्रसार ही रहा है। आधुनिक युग में प्रौद्योगिकी का इतना अधिक विकास हुआ है कि प्रसार की गति बहुत तेज हो गयी है।
(4) आन्तरिक विभेदीकरण (Internal Differentiation) :
जब हम सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हैं, तो ऐसा लगता है कि परिवर्तन का एक चौथा स्रोत भी संभव है- वह है आन्तरिक विभेदीकरण। इस तथ्य की पुष्टि उद्विकासीय सिद्धान्त (Evolutionary Theory) के प्रवर्तकों के विचारों से होती है। उन लोगों का मानना है कि समाज में परिवर्तन समाज के स्वाभाविक उद्विकासीय प्रक्रिया से ही होता है। हरेक समाज अपनी आवश्यकताओं के अनुसार धीरे-धीरे विशेष स्थिति में परिवर्तित होता रहता है। समाजशास्त्रियों एवं मानवशास्त्रियों ने अपने उद्विकासीय सिद्धान्त में स्वतः चलने वाली आन्तरिक विभेदीकरण की प्रक्रिया पर काफी बल दिया है।