Hindi, asked by MinnieChourasiya, 10 months ago

matrubhasha aur Shiksha par nibandh​

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Answered by saswati36
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भाषा शिक्षण का क्षेत्र अनुप्रायोगिक है। इसमें विभिन्न विषयों के शिक्षण के लिए जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह शिक्षा का माध्यम कहलाती है। शिक्षा का माध्यम अपनी मातृभाषा भी हो सकती है और दूसरी भाषा भी। इसलिए भाषा किसी-न-किसी उद्देश्य या प्रयोजन के संदर्भ में सीखी अथवा सिखाई जाती है, लेकिन मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का मुख्य उद्देश्य अपने समाज और देश में संप्रेषण प्रक्रिया को सुदृढ़, व्यापक और सशक्त बनाना होता है। वस्तुत: मातृभाषा एक सामाजिक यथार्थ है जो व्यक्ति को अपने भाषायी समाज के अनेक सामाजिक संदर्भों से जोड़ती है और उसकी सामाजिक अस्मिता का निर्धारण करती है। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने समाज और संस्कृति के साथ जुड़ा रहता है, क्योंकि वह उसकी संस्कृति और संस्कारों की संवाहक होती है। यह पालने की भाषा होती है जिससे व्यक्ति का समाजीकरण होता है। इससे प्रयोक्ता की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान और बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसकी संवेदनाओं और अनुभूतियों की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति भी होती है और बच्चा अपनी भाषा में धारा-प्रवाह बोलने में समर्थ और सक्षम होता है।

स्वामीनाथन अय्यर की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के सीखने के लिए सर्वाधिक सरल भाषा वही है जो वे घर में बोली जाने वाली भाषा सुनते हैं। यही उनकी मातृभाषा है। भारत में हिन्दी, बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ आदि सभी भारतीय भाषाएँ मातृभाषाएँ ही हैं। हिन्दी के संदर्भ में यह स्पष्ट करना असमीचीन न होगा कि मातृभाषा के रूप में हिन्दी भाषा का विकास मूल रूप से बोली-भाषी समूहों से हुआ है। खड़ीबोली, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मारवाड़ी, छतीसगढ़ी आदि बोलियों के प्रयोक्ता अपने बोली-क्षेत्र के बाहर के बृहत्तर समाज से जुड़ने तथा अपनी सामाजिक अस्मिता स्थापित करने के लिए हिन्दी को मातृभाषा के रूप में स्वीकार करते हैं और सीखते हैं जबकि इसकी बोलियाँ वास्तविक मातृभाषा ही हैं। यह स्थिति हर भाषा की बोलियों पर लागू होती है। इसलिए भारत बहुभाषी देश है और इसकी सभी भाषाओं और उनकी बोलियों को मातृभाषा की संज्ञा दी जा सकती है।

शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा स्वयं साध्य की भूमिका निभाती है और अन्य विषयों के शिक्षण के लिए साधन अर्थात माध्यम के रूप में सिखाई जाती है। साध्य के रूप में मातृभाषा को स्वतंत्र विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। इसमें भाषा के साहित्य और भाषायी विशिष्टाताओं का ज्ञान कराया जाता है। शिक्षार्थी बचपन में अपनी मातृभाषा बोलता और समझता तो है ही, उसकी बौद्धिक चेतना में वृद्धि करने के लिए विद्यालय में मातृभाषा के पढ़ने और लिखने के कौशल भी सिखाए जाते हैं। इसलिए वह साक्षर हो कर अपने रोज़मर्रा के कार्य सुचारू रूप से करने में सक्षम और समर्थ हो जाता है। साधन से अभिप्राय है कि मातृभाषा विज्ञान, चिकित्सा, प्रौद्योगिकी, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, भूगोल, भाषाविज्ञान आदि विषयों के शिक्षण के माध्यम के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाती है। शिक्षार्थी विभिन्न विषयों का ज्ञान स्वाभाविक रूप से और सरलता एवं सहजता से प्राप्त करता है। इस प्रकार मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने से शिक्षार्थी में बोलने, समझने, पढ़ने और लिखने के चारों कौशलों के विकास के साथ-साथ उसमें साहित्यिक रसास्वादन की क्षमता भी बढ़ती है और वह अपनी भाषा की सूक्ष्मताओं और विशिष्टताओं से परिचित भी होता है। इससे लिखित साहित्य तक उसकी पहुँच हो जाती है। उसकी सर्जनात्मक क्षमता और तार्किक शक्ति का विकास होता है। सर्जनात्मक प्रतिभा से उसकी साहित्यिक रचना करने की शक्ति पैदा होती है। साथ ही, अपने समाज में समाजोपयोगी कार्य करने की भाषिक क्षमता भी विकसित होती हैl

अंग्रेजा से मातृ-संस्कृति, अपनी परंपरा और जीवन-शैली को उखाड़ने की इजाजत कभी नहीं दी जा सकती। विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में अंग्रेजा का भाषिक आधिपत्य होने के कारण बाज़ार, घर, स्कूल, गाँव आदि में इसका वर्चस्व हो गया है जो हमारे समाज, संस्कृति और देश के लिए घातक है, क्योंकि इसके कारण सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विषमता पैदा होती है। यदि हम अपने देश की शिक्षा प्रणाली को विश्वस्तरीय बनाना चाहते हैं तो मातृभाषाओं को शिक्षा के माध्यम से अभिमंडित करना होगा। सदस्य, केंद्रीय हिन्दी समिति, भारत सरकार महासचिव एवं निदेशक, विश्व नागरी विज्ञान संस्थान, गुरुग्राम-दिल्ली

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