मयुरस्य क्रुते संस्कृत सुभाषित
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जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है
सर्वं परवशं दु:खं सर्वम् आत्मवशं सुखम् ।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुख-दु:खयो: ॥
जो चीजें अपने अधिकार में नहीं है वह दु:ख से जुडा है लेकिन सुखी रहना तो अपने हाथ में है । आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्रा ?पृथिव्या गादि ज्ञान नहीं तो धन नही मिलेगा ।
यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे ।
।। सेवा ही परम धर्म है
जडतैछ रझजत
अनन्तपारम् किल शब्दशास्त्रम् स्वल्पम् तथाऽऽयुर्बहवश्च विघ्नाः । सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसैर्यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥
पढने के लिए बहुत शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है | अपने पास समय की कमी है और बाधाएं बहुत है । जैसे हंस पानी में से दूध निकाल लेता है उसी तरह उन शास्त्रों का सार समझ लेना चाहिए।
सुभाषित 211
कलहान्तानि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौहृदम् |
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशो नॄणाम् ||
झगडों से परिवार टूट जाते है | गलत शब्द के प्रयोग करने से दोस्ती टूट जाती है । बुरे शासकों के कारण राष्ट्र का नाश होता है| बुरे काम करने से यश दूर भागता है।
दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रय: ॥
मनुष्य जन्म, मुक्ति की इच्छा तथा महापुरूषों का सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कृपा पर निर्भर रहते है ।
सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ॥
जो व्यक्ती सुख के पीछे भागता है उसे ज्ञान नहीं मिलेगा ।
तथा जिसे ज्ञान प्राप्त करना है वह व्यक्ति सुख का त्याग करता है ।
सुख के पीछे भागने वाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिस को विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?
सुभाषित क्र.214
दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।