Meaning of sakhi poem class b.a
Answers
पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि॥
व्याख्या - कबीरदास जी कहते हैं कि मैं जीवन में पहले सांसारिक माया मोह में व्यस्त था . लेकिन जब मुझसे इससे विरक्ति हुई ,तब मुझे सद्गुरु के दर्शन हुए .सद्गुरु के मार्गदर्शन से मुझे ज्ञान रूपी दीपक मिला इससे मुझसे परमात्मा की महत्ता का ज्ञान हुआ .यह सब गुरु की कृपा से ही संभव हुआ .
२.कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहे में प्रेम के महत्व के बारे कहते हैं कि मेरे जीवन में प्रेम बादल के रूप में वर्षा की . इस बारिश से मुझे अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ . जो आत्मा अभी मेरे अंत स्थल में सोयी हुई थी ,जाग गयी .अतःउसमें एक प्रकार की नवीनता आ गयी .मेरे जीवन हरा - भरा हो गया .
३.बासुरि सुख, नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माहिं।
कबीर बिछुट्या राम सूं, ना सुख धूप न छाँह॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहे में कहते हैं कि मनुष्य सांसारिक भाव भाधाओं में उलझा रहता है .उसे सुख की तलाश हमेशा रहती है . वह दिन -रात सुख की तालाश करता रहता है .लेकिन फिर में उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती है , वह सपने में भी सुख - शान्ति की तलाश करता रहता है .वास्तव में मनुष्य की आत्मा ,राम रूपी परमात्मा से जब बिछुड़ती है ,तो तभी से उसे दुःख प्राप्त हो जाता है . उसके दुःख दूर करने का एकमात्र उपाय राम रूपी परम्तामा की प्राप्ति है .
४.मूवां पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लौह सब, पारस कोणें काम॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मृत्यु के बाद परम्तामा की प्राप्ति किसी काम की नहीं है .यदि हमें जीवित रहते ही भगवत प्राप्ति हो जाए तो जीवन सफल हो जाएगा .इसीलिए हमें चाहिए कि इसी जीवन में परमात्मा प्राप्ति का उपाय करें. जब तक लोहा पारस को नहीं प्राप्त करता ,तब टक वह लोहा ही रहता है .पारस से स्पर्श के बाद ही वह सोना बन पाटा है .
५.अंखड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िया छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा अपने प्रेमी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए दिन रात बाट जोहते -जोहते उसकी आखें थक जाति है .मुँह से अपने प्रेमी रूपी परमात्मा का नाम लेते लेते उसके जीभ में छाले पड़ जाते हैं .इस प्रकार वह अपने परमात्मा रूपी प्रेमी राम को पुकारता रहता है .
६.जो रोऊँ तो बल घटै, हँसौं तो राम रिसाइ।
मनहि मांहि बिसूरणां, ज्यूँ घुंण काठहि खाइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि उनकी आत्मा की दशा ऐसी हो गयी है कि वे न हँस सकते हैं क्योंकि इससे प्रभु नाराज़ होंगे ,रोयेंगे तो बल घटेगा .इस प्रकार वे अपने परमात्मा रूपी प्रेमी को याद करके घुटते रहते हैं .जिस प्रकार लकड़ी के अन्दर का घुन उसे खा जाती है ,उसी प्रकार वे अपने परमात्मा रूपी प्रेमी को याद करके घुटते रहते हैं .
७.परवति-परवति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाँऊ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मैं पर्वत - पर्वत घूमता रहा ,मैं रोते - रोते अपनी दृष्टि गँवा बैठा ,लेकिन परमात्मा रूपी संजीवनी बूटी मुझे कहीं नहीं मिली .इस प्रकार जीवन अकारथ ही गया .
८.आया था संसार मैं, देषण कौं बहु रूप।
कहै कबीरा संत हौ, पड़ि गयां नजरि अनूप॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि मैं इस संसार की मायावी जीवन में रमा ही था .संसार की विविधता को देख रहा था ,लेकिन परमात्मा की कृपा से मेरा जीवन ही बदल गया .अब मैं आत्मा में ही रम गया .अब मुझे जीवन के बाहरी सौन्दर्य में कोई दिलचस्पी नहीं बची .
९.जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माहिं॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि जब टक मेरे मन के द्वेष , ईर्ष्या ,क्रोध ,मोह आदि की भावनाएँ थी ,तब तक परमात्मा मुझसे दूर थे ,लेकिन जब जीवन से अन्धकार मिटा तो मुझे प्रभु दिखाई पड़े और मेरे जीवन का अहंकार मिट गया .
१०.तन कौं जोगी सब करैं, मन कौं विरला कोइ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ॥
व्याख्या - कबीरदास जी प्रस्तुत दोहें में कहते हैं कि लोग बाहरी दिखावें के लिए साधू का वेश धारण करते हैं ,लेकिन मन से साधू नहीं होते हैं .अतः हमें वेश भूषा से साधू नहीं बल्कि मन से साधू होना चाहिए .मन से साधू होने पर ही परमात्मा की प्राप्ति होती है .