Hindi, asked by lollll4204, 10 months ago

Meera ki bhakti bbhavana pr lekh likho

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Answered by anitasingh0955
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मीरा की भक्ति भावना- कृष्ण प्रेम डॉ. भगवान सहाय श्रीवास्तव कृष्ण भक्तों में मीरा भी एक प्रमुख नाम है। उनकी भक्तिमय जीवन की धारा किन-किन मोड़ों से निकलकर अपने आराध्य में विलीन हो गई उसका एक संपूर्ण चित्र इस लेख में प्रस्तुत किया गया है। कृष्ण भक्ति की अनन्य प्रेम भावनाओं में अपने गिरधर के प्रेम में रंग राती मीरा का दर्द भरा स्वर अपनी अलग पहचान रखता है। समस्त भारत उस दर्द दीवानी की माधुर्य भक्ति से ओत-प्रोत रससिक्त वाणी से आप्लावित है। अपने नारी व्यक्तित्व की स्वतंत्र पहचान निर्मित करने वाली तथा युग की विभीषिकाओं के विरूद्ध संघर्षशील विद्रोहिणी मीरा का जन्म राजस्थान में मेड़ता कस्बे के कुड़की ग्राम में हुआ था। मीरा कृष्ण की अनन्य उपासिका थी। भक्ति भावना के आवेश में उन्होंने जिन पदों का गान किया है वे इस तरह से हैं - गीत गोविद की टीका, राग गोविन्द, नृसिंह जी को मायरो। मीरा की भक्ति-भावना माधुर्य भाव की रही है। आध्यात्मिक दृष्टि से वो कृष्ण को अपना पति मानती है। मीरा अपने कृष्ण प्रेम की दीवानी हैं। उन्होंने अपनी इस प्रेम बेलि की आंसुओं के जल से सिंचाई की है। जैसे ''म्हां-गिरधर रंगराती'' पंचरंग चोला पहेरया, सखि म्हां झरमट खेलण जाति। कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का बीजारोपण मीरा में बचपन में ही हो गया था। किसी साधु से मीरा ने कृष्ण की मूर्ति प्राप्त कर ली थी। विवाह होने के बाद वह उस मूर्ति को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी। जयमल वंश प्रकाश के अनुसार मीरा अपने शिक्षक पंडित गजाधर को भी अपने साथ चित्तौड़ ले गई थी और दुर्ग में मुरलीधर का मंदिर बनवाकर सेवा और पूजा आदि का समस्त कार्य गजाधर को सौंप दिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी मीरा कृष्ण की पूजा तथा अर्चना करती रही, परंतु मीरा के विधवा होते ही उस पर जो विपत्तियों के पहाड़ टूटे, उससे उसका मन वैराग्य की ओर उन्मुख हो गया। ज्यों ज्यों मीरा को कष्ट दिये गये, मीरा का लौकिक जीवन से मोह समाप्त होता गया और कृष्ण भक्ति में उनकी निष्ठा बढ़ती गई। वह कृष्ण को अपने पति के रूप में स्वीकार कर अमर सुहागिन बन गई। मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों से गुजरती है। प्रथम सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिए लालायित रहने का है। इस अवस्था में वह व्यग्रता से गाती हैं। 'मैं विरहणि बैठी जांगू, जग सोवेरी आलि' और कृष्ण मिलन की तड़प से बोल उठती हैं ''दरस बिन दुखण लागे नैन''। द्वितीय सोपान यह है कि जब कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है, ''पायो जी, मैंने राम रतन धन पायो।'' मीरा के ये उद्गार उनकी प्रसन्नता के सूचक हैं और इसी तरंग में वह कह उठती है ''साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा जुगारी जीवता, विरहणि पिय पाया हो''। तृतीय एवं अंतिम सोपान वह है, जब उन्हें आत्म बोध हो जाता है जो सायुज्य भक्ति की चरम सीढ़ी हैं। वह अपनी भक्ति में सखय भाव से ओत-प्रोत होकर कहती हैं ''म्हारे तो गिरधर गोपाल, दूजो न कोई''। मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती है। 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा नारी संतो में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में प्रमुख थी और शायद है। उनकी भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों के लिए मार्ग-निर्देशन करता रहा है। मीरा के काव्य में सांसारिक बंधनो का त्याग और ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव दृष्टिगत होता है। उनकी दृष्टि में सुख, वैभव, मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा आदि सभी मिथ्या है। यदि कोई सत्य है तो वह है- ''गिरधर गोपाल''। मीरा के विचार अतीत और वर्तमान से संबद्ध होकर भी मौलिक थे। परंपरा-समर्पित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे। पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे ! बाल्यकाल से ही मीरा में भगवत भक्ति के संस्कार जागृत होने लगे थे। वे अपनी सहेलियों के साथ खेल खिलवाड़ में भी ठाकुर जी की पूजा, ब्याह, बारात और नित्य नवीन उत्सव का खेल खेलती थीं। उनके हृदय मंदिर में बचपन से ही ऐसे अलौकिक प्रेमानुराग की छटा छिटकने लगी थी, जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता था। कृष्ण मूर्ति के लिए हठ : जब मीरा केवल दस वर्ष की थी, उनके घर अभ्यागत बन कर आये संत के पास श्रीकृष्ण की एक मूर्ति थी। जब वे उसकी पूजा करने लगे, मीराबाई भी उस समय उनके पास जा बैठी। बाल-सुलभ मीरा का मन मूर्ति के सौंदर्य पर आकृष्ट हो गया। उन्होंने साधु से पूछा, 'महाराज, आप जिनकी पूजा कर रहे हैं, इनका क्या नाम है?' साधु ने उत्तर दिया 'वह गिरधर लाल जी हैं।' मीरा ने कहा 'आप, इन्हें मुझे दे दीजिए।' इससे वह साधु बड़ा रूष्ट हुआ और वहां से चला गया। मीरा ने मूर्ति प्राप्त करने के लिए हठ किया और वह अन्न जल सब छोड़ बैठी। घर के लोग परेशान हो गये। जब मीरा ने लगातार सात दिन कुछ नहीं खाया, तब उस साधु को भगवान ने स्वप्न में मूर्ति मीरा को देने का आदेश दिया। साधु ने वैसा ही किया। गिरधरलाल जी की मूर्ति पाकर मीरा अत्यंत प्रसन्न हुई और नितनेम के साथ आठों याम उसकी पूजा अर्चना करने लगीं। एक दिन मीरा ने एक बारात देखी। अनेक प्रकार के बाजे बज रहे थे, दूल्हा पालकी में बैठा था। मीरा ने घर वालों से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? उत्तर मिला - गिरधर लाल जी ही तुम्हारे पति हैं। उसी दिन से मीरा ने भगवान कृष्ण को ही अपना पति मान लिया। वे उसी दिन से मग्न होकर गाने लगीं। ''मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई॥ मीरा अपने प्रियतम कृष्ण से मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाती हैं, 16वीं सदी में भक्ति की जिस धारा का उद्गम मीरा ने किया था, आज भी वही भक्ति धारा उसी प्रथा से प्रवाहित हो रही है। वास्तव में मीरा ईश्वर भक्ति की लगन वाली साधिकाओं में उनका नाम सर्व प्रमुख है।

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Answered by aditirai21dec2007
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Answer:

मीरा सिर्फ भगवान कृष्ण की भक्त थी। एक बार उसके घर के बाहर से बारात जा रही थी। तो वे अपने माँ के पास जा जे बोली कि मेरा पति कौन होगा उनकी माँ उनको तुरंत कृष्णा जी की मूर्ति के पास ले गई और बोली कि ये तुम्हारे पति परमेश्वर है । उसी समय से मीरा बाई ने उनकी पूजा करना शुरू कर दिया । और वे उनकी परम भक्त बन गयी।

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