Meerabai ke baare mein essay in hindi
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मीराबाई का जन्म सन 1503 ईस्वी में राजस्थान के मारवाड़ जिले के अंतर्गत चौकड़ी नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम रतन सिंह था। उदयपुर के राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ इनका विवाह हुआ था। विवाह के कुछ ही समय बाद उनके पति की मृत्यु हो गई। मीरा बचपन से ही कृष्ण की भक्ति किया करती थी। गोपियों की भांति मीरा माधुर्य भाव से कृष्ण की उपासना करती थी। मीरा कृष्ण को ही अपना पति मानती थी और लोक लाज खोकर कृष्ण के प्रेम में लीन रहती थीं। बचपन से ही वे अपना अधिक समय संत महात्माओं के सत्संग में व्यतीत करती थीं। मंदिर में जाकर अपने आराध्य की प्रतिमा के समक्ष आनंद विभोर होकर नृत्य करती थीं। पति की मृत्यु के पश्चात उनकी भक्ति भावना और भी अधिक बढ़ गई। मीरा पूर्ण रूप से संसार से विरक्त हो गई। उनका सारा समय कृष्ण की आराधना में बीतने लगा। हरि कीर्तन करना, देवमूर्ति के सामने नाचना, साधु-संतों की संगति में रहना आदि उनका व्यवहार उदयपुर की राज मर्यादा के प्रतिकूल था इसलिए राज परिवार के लोग इनसे नाराज रहने लगे। राणा सांगा के सौतेले भाई विक्रमादित्य ने मीराबाई को लोक लज्जा के विरुद्ध चलने से मना किया। ऐसा ना करने पर मीराबाई को कई बार षड्यंत्रों के द्वारा मारने का प्रयास किया गया। एक बार मीराबाई को विष का प्याला भेजा गया। मीरा ने विषपान कर लिया फिर भी मीरा को प्रभु कृपा से कुछ नहीं हुआ। मीराबाई उस वातावरण से खिन्न होकर तीर्थ यात्रा करने वृंदावन चली गईं, वहीं पर सन 1556 के आसपास उनकी मृत्यु हो गई।
मीराबाई ने अपनी काव्य रचना में लौकिक प्रतीकों और रूपकों को शामिल किया लेकिन उनका उद्देश्य पारलौकिक चिंतन धारा के अनुकूल था यही कारण है कि वह दोनों ही दृष्टियों से अपनाने योग्य के साथ ही साथ रुचिपूर्ण और हृदयस्पर्शी भी था। मीराबाई के काव्य के भाव पक्ष में यह भी भाव विशेष का दर्शन या अनुभव हमें प्राप्त होता है कि वह श्री कृष्ण के वियोग में बहुत ही विरहपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो चुकी थी। श्री कृष्ण के दर्शन की तीव्र कामना और उमंग का अंदाजा उनके निम्न उदाहरणों से लगाया जा सकता है-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई।
छांड़ि दई कुल की आनि, का करिहै कोई।।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
पायौ जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू, किरपा करि अपनायो।
जन्म-जन्म की पूँजी पाई, जग में सभी रवुवायो।
खरचै नहीं, कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव, खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरख, हरख जस गायो।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएं गीत गोविंद की टीका, नरसी जी की माया, राग गोविंद, राग सोरठ के पद, फुटकर पद आदि हैं। अपनी भाषा शैली में मीराबाई ने कहावत और मुहावरों के लोक प्रचलित स्वरूपों को भी स्थान दिया है। इसके अलावा अलंकार और रसों का भी समुचित प्रयोग किया है।
मीराबाई ने अपनी काव्य रचना में लौकिक प्रतीकों और रूपकों को शामिल किया लेकिन उनका उद्देश्य पारलौकिक चिंतन धारा के अनुकूल था यही कारण है कि वह दोनों ही दृष्टियों से अपनाने योग्य के साथ ही साथ रुचिपूर्ण और हृदयस्पर्शी भी था। मीराबाई के काव्य के भाव पक्ष में यह भी भाव विशेष का दर्शन या अनुभव हमें प्राप्त होता है कि वह श्री कृष्ण के वियोग में बहुत ही विरहपूर्ण अवस्था को प्राप्त हो चुकी थी। श्री कृष्ण के दर्शन की तीव्र कामना और उमंग का अंदाजा उनके निम्न उदाहरणों से लगाया जा सकता है-
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई।।
तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई।
छांड़ि दई कुल की आनि, का करिहै कोई।।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-
पायौ जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू, किरपा करि अपनायो।
जन्म-जन्म की पूँजी पाई, जग में सभी रवुवायो।
खरचै नहीं, कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो।
सत की नाव, खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, हरख, हरख जस गायो।
मीराबाई की प्रमुख रचनाएं गीत गोविंद की टीका, नरसी जी की माया, राग गोविंद, राग सोरठ के पद, फुटकर पद आदि हैं। अपनी भाषा शैली में मीराबाई ने कहावत और मुहावरों के लोक प्रचलित स्वरूपों को भी स्थान दिया है। इसके अलावा अलंकार और रसों का भी समुचित प्रयोग किया है।
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मीराबाई
Mirabai
भारतीय इतिहास के मध्यकाल (भक्तिकाल) मं भक्ति और काव्य को प्रेम की अनन्य पीर एंव विरह की अनन्य वेदना से सजाने वाली विशिष्ट प्रतिभा का नाम है-मीराबाई। इन तत्वों की इस अमर गायिका का श्रीकृष्ण के भक्त कवियों में अपना अन्यतम और महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। इनका जन्म-स्थान राजस्थान का मेड़ता नामक स्थान माना जाता है। वहां के राव दूदाजी के चौथे बेटे राव रत्नसिंह के यहां कुडक़ी गांव में मीरा का जन्म सन 1516 में हुआ था। बचपन में ही माता का स्र्वगवास हो गया था। अत: इनका लालन5पालन परम वैष्णव राव दूदाजी की देख-रेख में ही हुआ था। दादा का संस्कार और प्रभाव ही आगे चलकर श्रीकृष्ण भक्ति के रूप में साकार हुआ। बचपन से ही मीरा भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति एंव सर्वस्व मानने लगी थी। इस कारण मीरा का ध्यान सामाजिकता की ओर मोडऩे के लिए, जब वह केवल बारह वर्ष की थी, तभी उसका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के बड़े बेटे भोजराज के साथ कर दिया गया। परंतु भक्ति-भाव से वह विमुख न हो सकी और न ही कभी पति के साथ विलास-भावना का निर्वाह ही कर सकी। कुछ ही दिनों बाद जब वह विधवा हो गई, तो अब वह अपने को सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों से पूर्ण मुक्त मानकर हर क्षण भक्ति-भाव में लीन रहने लगी।
विधवा होने के बाद मीरा का सारा समय साधु-संतों के सत्संग और भजन-कीर्तन में बीतने लगा। वह घरेलू मंदिर या अन्य मंदिरों में पहुंच श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने खुले बालों नचाने-गाने लगती। इसे अपने वंश-गौरव के विपरीत मान देवर तथा राज्य परिवार के अन्य सदस्य मीरा को पहले रोकने और बाद में अनेक कष्ट देने लगे। यहां तक कि उसे मार डालने तक के कई प्रयत्न किए गए, परंतु प्रेम-दीवानी मीरा के लिए घातक विष भी अमृत और काले नाग भी शालिग्राम बनते गए। अंतमें तंग आकर मीरा ने घर-परिवार का त्याग कर दिया। वृंदावन आदि तीर्थों की यात्रा करती हुई वह द्वारिकापुरी जा पहुंची। वहां से राणा परिवर ने उसे लाने की चेष्टा की, परंतु सफल न हो सका। इनका स्वर्गवास सं. 1603 के आसपास माना जाता है।
भक्ति साधना की दृष्टि से मीरा की कविता में सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति-भावना के दर्शन होते हैं। इससे लगता है कि सगुण-साकार श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका होते हुए भी मीरा निर्गुणवादी संतों के सत्संग से प्रभावित हो निर्गुण निराकार की भ्ी उपासना किया करती थी। इस दृष्टि से हम उसे समन्यवादी साधिका और कवयित्री भी कह सकते हैं। मीर की प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – ‘नरसी जी का मायरा’, ‘गीत गोविंद का टीका’, ‘मीरा नी गरवो’, ‘रासगोविंद’, ‘राग सोरठ के पद’ आदि। इन रचनाओं में से कुछ तो उपलब्ध नहीं और कुछ संदिज्ध मानी जाती हैं। ऐसा भी हुआ है कि कई अन्य लोगों ने कुछ पद रच, उनमें मीरा का नाम जोड़ दिया और वे उसी के नाम से प्रचलित एंव प्रसिद्ध हो गए। गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषाओं में भी मीरा के पद मिलते हैं। मीरा का वास्तविक भाषा हमारे विचार में गुजराती मिश्रित मारवाड़ी ही थी। आज जो हम उसका काव्य पढ़ते हैं उसमें भाषा का सुधार एंव परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है। लगता है कि संग्रह करने वालों ने हिंदी-पाठकों की सुविधा के लिए ही ऐसा सरलीकरण किया है।
भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम-निवेदन और सर्वस्व-समर्पण ही मीरा की कविता का मुख्य विषय है। उसकी विरह-वेदना अथाह और बहुत धार्मिंक बन पड़ी है। उसमें अनन्य आस्था अनुभूतियों की तीव्रता बनकर प्रगट हुई है। गेयता का गुण इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी महान संगीतकार उसके रचे पद चाव एंव तन्मयता से गाते हैं। मीरा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में जो एक अनोखा दर्द, संवेदना और निजीपन है, वही उसका सर्वस्व है और उसी सरस-सरल निजता के कारण वह तथा उनका काव्य अजर-अमर भी है।
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Mirabai
भारतीय इतिहास के मध्यकाल (भक्तिकाल) मं भक्ति और काव्य को प्रेम की अनन्य पीर एंव विरह की अनन्य वेदना से सजाने वाली विशिष्ट प्रतिभा का नाम है-मीराबाई। इन तत्वों की इस अमर गायिका का श्रीकृष्ण के भक्त कवियों में अपना अन्यतम और महत्वपूर्ण स्थान माना गया है। इनका जन्म-स्थान राजस्थान का मेड़ता नामक स्थान माना जाता है। वहां के राव दूदाजी के चौथे बेटे राव रत्नसिंह के यहां कुडक़ी गांव में मीरा का जन्म सन 1516 में हुआ था। बचपन में ही माता का स्र्वगवास हो गया था। अत: इनका लालन5पालन परम वैष्णव राव दूदाजी की देख-रेख में ही हुआ था। दादा का संस्कार और प्रभाव ही आगे चलकर श्रीकृष्ण भक्ति के रूप में साकार हुआ। बचपन से ही मीरा भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति एंव सर्वस्व मानने लगी थी। इस कारण मीरा का ध्यान सामाजिकता की ओर मोडऩे के लिए, जब वह केवल बारह वर्ष की थी, तभी उसका विवाह मेवाड़ के राणा सांगा के बड़े बेटे भोजराज के साथ कर दिया गया। परंतु भक्ति-भाव से वह विमुख न हो सकी और न ही कभी पति के साथ विलास-भावना का निर्वाह ही कर सकी। कुछ ही दिनों बाद जब वह विधवा हो गई, तो अब वह अपने को सभी प्रकार के सांसारिक बंधनों से पूर्ण मुक्त मानकर हर क्षण भक्ति-भाव में लीन रहने लगी।
विधवा होने के बाद मीरा का सारा समय साधु-संतों के सत्संग और भजन-कीर्तन में बीतने लगा। वह घरेलू मंदिर या अन्य मंदिरों में पहुंच श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने खुले बालों नचाने-गाने लगती। इसे अपने वंश-गौरव के विपरीत मान देवर तथा राज्य परिवार के अन्य सदस्य मीरा को पहले रोकने और बाद में अनेक कष्ट देने लगे। यहां तक कि उसे मार डालने तक के कई प्रयत्न किए गए, परंतु प्रेम-दीवानी मीरा के लिए घातक विष भी अमृत और काले नाग भी शालिग्राम बनते गए। अंतमें तंग आकर मीरा ने घर-परिवार का त्याग कर दिया। वृंदावन आदि तीर्थों की यात्रा करती हुई वह द्वारिकापुरी जा पहुंची। वहां से राणा परिवर ने उसे लाने की चेष्टा की, परंतु सफल न हो सका। इनका स्वर्गवास सं. 1603 के आसपास माना जाता है।
भक्ति साधना की दृष्टि से मीरा की कविता में सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार की भक्ति-भावना के दर्शन होते हैं। इससे लगता है कि सगुण-साकार श्रीकृष्ण की अनन्य उपासिका होते हुए भी मीरा निर्गुणवादी संतों के सत्संग से प्रभावित हो निर्गुण निराकार की भ्ी उपासना किया करती थी। इस दृष्टि से हम उसे समन्यवादी साधिका और कवयित्री भी कह सकते हैं। मीर की प्रमुख रचनाओं के नाम हैं – ‘नरसी जी का मायरा’, ‘गीत गोविंद का टीका’, ‘मीरा नी गरवो’, ‘रासगोविंद’, ‘राग सोरठ के पद’ आदि। इन रचनाओं में से कुछ तो उपलब्ध नहीं और कुछ संदिज्ध मानी जाती हैं। ऐसा भी हुआ है कि कई अन्य लोगों ने कुछ पद रच, उनमें मीरा का नाम जोड़ दिया और वे उसी के नाम से प्रचलित एंव प्रसिद्ध हो गए। गुजराती, मारवाड़ी आदि भाषाओं में भी मीरा के पद मिलते हैं। मीरा का वास्तविक भाषा हमारे विचार में गुजराती मिश्रित मारवाड़ी ही थी। आज जो हम उसका काव्य पढ़ते हैं उसमें भाषा का सुधार एंव परिवर्तन स्पष्ट देखा जा सकता है। लगता है कि संग्रह करने वालों ने हिंदी-पाठकों की सुविधा के लिए ही ऐसा सरलीकरण किया है।
भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम-निवेदन और सर्वस्व-समर्पण ही मीरा की कविता का मुख्य विषय है। उसकी विरह-वेदना अथाह और बहुत धार्मिंक बन पड़ी है। उसमें अनन्य आस्था अनुभूतियों की तीव्रता बनकर प्रगट हुई है। गेयता का गुण इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी महान संगीतकार उसके रचे पद चाव एंव तन्मयता से गाते हैं। मीरा की काव्यात्मक अभिव्यक्ति में जो एक अनोखा दर्द, संवेदना और निजीपन है, वही उसका सर्वस्व है और उसी सरस-सरल निजता के कारण वह तथा उनका काव्य अजर-अमर भी है।
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