mirabai ka jivan parichay in hindi
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मीराबाई का जन्म संवत् 1573(1516ई.) विक्रमी में मेड़ता में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ। (कई किताबो में कुड़की बताया जाता है जो बिलकुल सही है ) ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।मीरा का जन्म राठौर राजपूत परिवार में हुआ व् उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया राज परिवार में हुआ। उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे। विवाह के कुछ समय बाद ही उनके पति का देहान्त हो गया। पति की मृत्यु के बाद उन्हें पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया, किन्तु मीरा इसके लिए तैयार नहीं हुईं। वे संसार की ओर से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में हरिकीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग उन्हे देवी के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।मीरा का समय बहुत बड़ी राजनैतिक उथल पुथल का समय रहा है। बाबर का हिंदुस्तान पर हमला और प्रसिद्ध खानवा की लड़ाई जो की बाबर और राणा संग्राम सिंह के बीच हुई, जिसमें राणा सांगा की पराजय हुई और भारत में मुग़लों का अधिपत्य शुरू हुआ। इस सभी परिस्तिथियों के बीच मीरा का रहस्यवाद और भक्ति की निर्गुण मिश्रित सगुण पद्धत्ति सवर्मान्य बनी।द्वारका में संवत 1603(1546ई.)विक्रम वो भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गईं।
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मीराबाई का जीवन परिचय :
भक्तियुग की सर्वश्रेष्ठ कवियत्री कृष्णभक्ति में पूरी तरह रंगे हुयी मीरा बाई (Meera Bai) 16वीं सदी की महान विभूतियों में से एक थी | बचपन से ही कृष्ण से प्रेम करने वाली मीरा को संसार कृष्णमय लगता था | कृष्ण के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी अच्छा नही लगता था | उनका रोम रोम कृष्ण-मय था | उनका मन संत-समागम , संगीत , भगवत चर्चा ,कृष्ण लीला में ही लगता था | वे सांसारिक सुखो से दूर सदा रहती थी | उन्हें राजसत्ता का कोई मोह नही था |
कृष्णभक्त मीराबाई (Meera Bai) का जन्म मेड़ता (राजस्थान) के राठौड़ राजा रावदूदा के पुत्र रतनसिंह के घर गाँव “कुडकी” में 1498 में हुआ और उनका विवाह 1516 में राणा सांगा के जयेष्ट पुत्र युवराज भोजराज के साथ हुआ था |
मीराबाई के विवाह के सात वर्ष के पश्चात ही युवराज भोजराज की मृत्यु हो गयी तथा मीराबाई युवावस्था में ही विधवा हो गयी | मीराबाई बचपन से ही कृष्ण-भक्त थी | उनका अधिकाँश समय भजन-कीर्तन में ही व्यतीत होता था |
पूरा नाम – मीराबाई
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)पिता – रतनसिंह
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)पिता – रतनसिंहमाता – विरकुमारी
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)पिता – रतनसिंहमाता – विरकुमारीविवाह – महाराणा कुमार भोजराज (Husband of Meerabai)
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)पिता – रतनसिंहमाता – विरकुमारीविवाह – महाराणा कुमार भोजराज (Husband of Meerabai)कार्यक्षेत्र – कवियित्री, महान कृष्ण भक्त
पूरा नाम – मीराबाईजन्मस्थान – कुडकी (राजस्थान)पिता – रतनसिंहमाता – विरकुमारीविवाह – महाराणा कुमार भोजराज (Husband of Meerabai)कार्यक्षेत्र – कवियित्री, महान कृष्ण भक्तमृत्यु – 1557
“पदावली” यह मीराबाई की एकमात्र प्रमाणभूत काव्यकृती है। ‘पायो जी मैंने रामरतन धन पायो’ यह मीरा बाई की प्रसिद्ध रचना है।
ऐसा माना जाता है कि सन् 1533 के आसपास मीरा को ‘राव बीरमदेव’ ने मेड़ता बुला लिया और मीरा के चित्तौड़ त्याग के अगले साल ही सन् 1534 में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया। इस युद्ध में चितौड़ के शासक विक्रमादित्य मारे गए तथा सैकड़ों महिलाओं ने जौहर किया। इसके पश्चात सन् 1538 में जोधपुर के शासक राव मालदेव ने मेड़ता पर अधिकार कर लिया जिसके बाद बीरमदेव ने भागकर अजमेर में शरण ली और मीरा बाई ब्रज की तीर्थ यात्रा पर निकल पड़ीं। सन् 1539 में मीरा बाई वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं। वृंदावन में कुछ साल निवास करने के बाद मीराबाई सन् 1546 के आस-पास द्वारका चली गईं।
तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोही माना गया क्योंकि उनके धार्मिक क्रिया-कलाप किसी राजकुमारी और विधवा के लिए स्थापित परंपरागत नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण के मंदिर और साधु-संतों व तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।
मृत्यु
ऐसा माना जाता है कि बहुत दिनों तक वृन्दावन में रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गईं जहाँ सन 1557 में वे भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गईं।