Moral of the story namak ka daroga in two pages in Hindi
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मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित यह कहानी कर्मों का फल में विश्वास दिलाती हुई कहानी है| कहानी में मानव मूल्यों का आदर्श रूप दिखाया गया है और उसे सम्मानित भी किया गया है| सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा और कर्मपरायणता को विश्व के दुर्लभ गुणों में बताया गया है| यह कहानी धन के ऊपर धर्म के जीत की है|
कहानी आजादी से पहले की है| नमक का नया विभाग बना| विभाग में ऊपरी कमाई बहुत ज्यादा थी| सभी व्यक्ति इस विभाग में काम करने को उत्सुक थे| उसे दौर में लोग प्रेम की कथाएँ पढ़कर उच्च पदों पर पहुँच जाते थे|
मुंशी वंशीधर भी महत्वपूर्ण विषय जैसे इतिहास को छोड़ प्रेम गाथाओं का ज्यादा अध्ययन कर रोजगार की खोज में निकल पड़े| उनके पिता अनुभवी पुरुष थे| उन्होंने समझाया कि घर की दुर्दशा के अनुसार नौकरी करना चाहिए| वे बताते हैं कि प्रतिष्ठा के आधार पदों का चुनाव ना करे बल्कि उस पद को चुने जिसमें ऊपरी कमाई हो| मासिक वेतन के बारे में वे कहते हैं कि महीने की शुरुआत में ही खत्म होनी शुरू हो जाती है| ऊपरी आय को वह ऐसा स्त्रोत बताते हैं जो हर वक़्त आती है| महीने की कमाई को वह मनुष्य की देन तो वहीं ऊपरी कमाई को वह ईश्वर की देन बताते हैं|
वंशीधर पिता से आशीर्वाद लेकर नौकरी की तलाश में निकल जाते हैं| भाग्य से नमक विभाग के दारोग पद की नौकरी मिली जाती है जिसमें वेतन अच्छा था साथ ही ऊपरी कमाई भी ज्यादा थी| यह खबर जब पिता को पता चली तो वह बहुत खुश हुए|
मुंशी वंशीधर ने छः महीने में अपनी कार्यकुशलता और अच्छे आचरण से सभी अफ़सरों को मोहित कर लिया था| जाड़े के समय एक रात वंशीधर अपने दफ़्तर में सो रहे थे| उनके दफ़्तर से एक मील पहले जमुना नदी थी जिसपर नावों का पुल बना हुआ था| वंशीधर सो रहे थे| गाड़ियों की आवाज़ और मल्लाहों की कोलाहल से उनकी नींद खुली| बंदूक जेब में रखा और घोड़े पर बैठकर पुल पर पहुँचे वहाँ गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल पार कर रही थीं| उन्होंने पूछा किसकी गाड़ियाँ हैं तो पता चला, पंडित अलोपीदीन की हैं|
मुंशी वंशीधर चौंक पड़े| पंडित अलोपीदीन इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे| लाखों रुपयों का व्यापार था| वंशीधर ने जब जाँच किया तब पता चला कि गाड़ियों में नमक के ढेले के बोरे हैं| उन्होंने गाड़ियाँ रोक लीं|
पंडितजी को यह बात पता चली तो वह अपने धन पर विश्वास किए वंशीधर के पास पहुँचे और उनसे गाड़ियों के रोकने के बारे में पूछा| पंडितजी ने वंशीधर को रिश्वत देकर गाड़ियों को छोड़ने को कहा परन्तु वंशीधर अपने कर्तव्य पर अडिग रहे और पंडितजी को गिरफ़्तार करने का हुक्म दे दिया| पंडितजी आश्चर्यचकित रह गए| पंडितजी ने रिश्वत को बढ़ाया भी परन्तु वंशीधर नहीं माने और पंडितजी को गिरफ्तार कर लिया गया|
अगले दिन यह खबर हर तरफ फैली गयी| पंडित अलोपीदीन के हाथों में हथकड़ियाँ डालकर अदालत में लाया गया| हृदय में ग्लानि और क्षोभ और लज्जा से उनकी गर्दन झुकी हुई थी| सभी लोग चकित थे कि पंडितजी कानून की पकड़ में कैसे आ गए| सारे वकील और गवाह पंडितजी के पक्ष में थे, वंशीधर के पास केवल सत्य का बल था| न्याय की अदालत में पक्षपात चल रहा था| मुकदमा तुरंत समाप्त हो गया| पंडित अलोपीदीन को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया गया| वंशीधर के उद्दंडता और विचारहीनता के बर्ताव पर अदालत ने दुःख जताया जिसके कारण एक अच्छे व्यक्ति को कष्ट झेलना पड़ा| भविष्य में उसे अधिक होशियार रहने को कहा गया|
पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले| रुपये बाँटे गए| वंशीधर को व्यंग्यबाणों को सहना पड़ा| एक सप्ताह के अंदर कर्तव्यनिष्ठा का दंड मिला और नौकरी से हटा दिया गया| पराजित हृदय, शोक और खेद से व्यथित अपने घर की ओर चल पड़े| घर पहुँचे तो पिताजी ने कड़वीं बातें सुनाई| वृद्धा माता को भी दुःख हुआ| पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह तक बात नहीं की|
एक सप्ताह बीत गया| संध्या का समय था| वंशीधर के पिता राम-नाम की माला जप रहे थे| तभी वहाँ एक सजा हुआ एक रथ आकर रुका| पिता ने देखा पंडित अलोपीदीन हैं| झुककर उन्हें दंडवत किया और चापलूसी भरी बातें करने लगे, साथ ही अपने बेटे को कोसा भी| पंडितजी ने बताया कि उन्होंने कई रईसों और अधिकारियों को देखा और सबको अपने धनबल का गुलाम बनाया| ऐसा पहली बार हुआ जब कोई व्यक्ति ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा उन्हें हराया हो|
वंशीधर ने जब पंडितजी को देखा तो स्वाभिमान सहित उनका सत्कार किया| उन्हें लगा की पंडितजी उन्हें लज्जित करने आए हैं| परन्तु पंडितजी की बातें सुनकर उनके मन का मैल मिट गया और पंडितजी की बातों को उनकी उदारता बताया| उन्होंने कहा पंडितजी को कहा कि उनका जो हुक्म होगा वे करने को तैयार हैं| इस बात पर पंडितजी ने स्टाम्प लगा हुआ एक पत्र निकला और उसे प्रार्थना स्वीकार करने को बोला| वंशीधर ने जब कागज़ पढ़ा तो उसमें पंडितजी ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त किया था| कृतज्ञता से वंशीधर की आँखों में आँसू आ गए और उन्होंने कहा कि वे इस पद के योग्य नहीं हैं| इसपर पंडितजी ने मुस्कराते हुए कहा कि उन्हें अयोग्य व्यक्ति ही चाहिए| वंशीधर ने कहा कि उनमें इतनी बुद्धि नहीं की वह यह कार्य कर सकें| पंडितजी ने वंशीधर को कलम देते हुए कहा कि उन्हें विद्यवान नहीं चाहिए बल्कि धर्मनिष्ठित व्यक्ति चाहिए|
कहानी आजादी से पहले की है| नमक का नया विभाग बना| विभाग में ऊपरी कमाई बहुत ज्यादा थी| सभी व्यक्ति इस विभाग में काम करने को उत्सुक थे| उसे दौर में लोग प्रेम की कथाएँ पढ़कर उच्च पदों पर पहुँच जाते थे|
मुंशी वंशीधर भी महत्वपूर्ण विषय जैसे इतिहास को छोड़ प्रेम गाथाओं का ज्यादा अध्ययन कर रोजगार की खोज में निकल पड़े| उनके पिता अनुभवी पुरुष थे| उन्होंने समझाया कि घर की दुर्दशा के अनुसार नौकरी करना चाहिए| वे बताते हैं कि प्रतिष्ठा के आधार पदों का चुनाव ना करे बल्कि उस पद को चुने जिसमें ऊपरी कमाई हो| मासिक वेतन के बारे में वे कहते हैं कि महीने की शुरुआत में ही खत्म होनी शुरू हो जाती है| ऊपरी आय को वह ऐसा स्त्रोत बताते हैं जो हर वक़्त आती है| महीने की कमाई को वह मनुष्य की देन तो वहीं ऊपरी कमाई को वह ईश्वर की देन बताते हैं|
वंशीधर पिता से आशीर्वाद लेकर नौकरी की तलाश में निकल जाते हैं| भाग्य से नमक विभाग के दारोग पद की नौकरी मिली जाती है जिसमें वेतन अच्छा था साथ ही ऊपरी कमाई भी ज्यादा थी| यह खबर जब पिता को पता चली तो वह बहुत खुश हुए|
मुंशी वंशीधर ने छः महीने में अपनी कार्यकुशलता और अच्छे आचरण से सभी अफ़सरों को मोहित कर लिया था| जाड़े के समय एक रात वंशीधर अपने दफ़्तर में सो रहे थे| उनके दफ़्तर से एक मील पहले जमुना नदी थी जिसपर नावों का पुल बना हुआ था| वंशीधर सो रहे थे| गाड़ियों की आवाज़ और मल्लाहों की कोलाहल से उनकी नींद खुली| बंदूक जेब में रखा और घोड़े पर बैठकर पुल पर पहुँचे वहाँ गाड़ियों की एक लंबी कतार पुल पार कर रही थीं| उन्होंने पूछा किसकी गाड़ियाँ हैं तो पता चला, पंडित अलोपीदीन की हैं|
मुंशी वंशीधर चौंक पड़े| पंडित अलोपीदीन इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे| लाखों रुपयों का व्यापार था| वंशीधर ने जब जाँच किया तब पता चला कि गाड़ियों में नमक के ढेले के बोरे हैं| उन्होंने गाड़ियाँ रोक लीं|
पंडितजी को यह बात पता चली तो वह अपने धन पर विश्वास किए वंशीधर के पास पहुँचे और उनसे गाड़ियों के रोकने के बारे में पूछा| पंडितजी ने वंशीधर को रिश्वत देकर गाड़ियों को छोड़ने को कहा परन्तु वंशीधर अपने कर्तव्य पर अडिग रहे और पंडितजी को गिरफ़्तार करने का हुक्म दे दिया| पंडितजी आश्चर्यचकित रह गए| पंडितजी ने रिश्वत को बढ़ाया भी परन्तु वंशीधर नहीं माने और पंडितजी को गिरफ्तार कर लिया गया|
अगले दिन यह खबर हर तरफ फैली गयी| पंडित अलोपीदीन के हाथों में हथकड़ियाँ डालकर अदालत में लाया गया| हृदय में ग्लानि और क्षोभ और लज्जा से उनकी गर्दन झुकी हुई थी| सभी लोग चकित थे कि पंडितजी कानून की पकड़ में कैसे आ गए| सारे वकील और गवाह पंडितजी के पक्ष में थे, वंशीधर के पास केवल सत्य का बल था| न्याय की अदालत में पक्षपात चल रहा था| मुकदमा तुरंत समाप्त हो गया| पंडित अलोपीदीन को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया गया| वंशीधर के उद्दंडता और विचारहीनता के बर्ताव पर अदालत ने दुःख जताया जिसके कारण एक अच्छे व्यक्ति को कष्ट झेलना पड़ा| भविष्य में उसे अधिक होशियार रहने को कहा गया|
पंडित अलोपीदीन मुस्कराते हुए बाहर निकले| रुपये बाँटे गए| वंशीधर को व्यंग्यबाणों को सहना पड़ा| एक सप्ताह के अंदर कर्तव्यनिष्ठा का दंड मिला और नौकरी से हटा दिया गया| पराजित हृदय, शोक और खेद से व्यथित अपने घर की ओर चल पड़े| घर पहुँचे तो पिताजी ने कड़वीं बातें सुनाई| वृद्धा माता को भी दुःख हुआ| पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह तक बात नहीं की|
एक सप्ताह बीत गया| संध्या का समय था| वंशीधर के पिता राम-नाम की माला जप रहे थे| तभी वहाँ एक सजा हुआ एक रथ आकर रुका| पिता ने देखा पंडित अलोपीदीन हैं| झुककर उन्हें दंडवत किया और चापलूसी भरी बातें करने लगे, साथ ही अपने बेटे को कोसा भी| पंडितजी ने बताया कि उन्होंने कई रईसों और अधिकारियों को देखा और सबको अपने धनबल का गुलाम बनाया| ऐसा पहली बार हुआ जब कोई व्यक्ति ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा उन्हें हराया हो|
वंशीधर ने जब पंडितजी को देखा तो स्वाभिमान सहित उनका सत्कार किया| उन्हें लगा की पंडितजी उन्हें लज्जित करने आए हैं| परन्तु पंडितजी की बातें सुनकर उनके मन का मैल मिट गया और पंडितजी की बातों को उनकी उदारता बताया| उन्होंने कहा पंडितजी को कहा कि उनका जो हुक्म होगा वे करने को तैयार हैं| इस बात पर पंडितजी ने स्टाम्प लगा हुआ एक पत्र निकला और उसे प्रार्थना स्वीकार करने को बोला| वंशीधर ने जब कागज़ पढ़ा तो उसमें पंडितजी ने वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियुक्त किया था| कृतज्ञता से वंशीधर की आँखों में आँसू आ गए और उन्होंने कहा कि वे इस पद के योग्य नहीं हैं| इसपर पंडितजी ने मुस्कराते हुए कहा कि उन्हें अयोग्य व्यक्ति ही चाहिए| वंशीधर ने कहा कि उनमें इतनी बुद्धि नहीं की वह यह कार्य कर सकें| पंडितजी ने वंशीधर को कलम देते हुए कहा कि उन्हें विद्यवान नहीं चाहिए बल्कि धर्मनिष्ठित व्यक्ति चाहिए|
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