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मानव सभ्यता और संस्कृति आरंभ से ही सच्चाई, सफाई और पवित्रता पर जोर देती है। दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताओं में स्वच्छता पर विशेष बल दिया दिया है। स्वच्छता व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर हो सकती है और दोनों का अपना-अपना महत्व है। प्रकृति में स्वच्छता स्वाभाविक रूप से होती है। स्वच्छता का सुंदरता से अटूट नाता है। यह कहना चाहिए कि जो स्वच्छ है, वह सुंदर भी है। साफ हवा, पानी और जमीन मानव सभ्यता की मूल आवश्यकता है और सदियों से इसके लिए प्रयास होता रहा है। मानव सभ्यताएं इनकी तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकती रही है। दुनिया की तमाम मानव सभ्यताएं वहीं बसी और पनपी जहां ये तीनों उपलब्ध रही और जहां इनमें से किसी एक का भी अभाव रहा तो वह सभ्यता या तो खत्म हो गयी या उजड़ गयी।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में पवित्रता और शुद्धता को विशेष स्थान प्राप्त है। जीवन के प्रत्येक पक्ष में इन दोनों को परिपूर्णता के साथ स्वीकार किया जाता है। वास्तव में पवित्रता और शुद्धता का अस्तित्व स्वच्छता से जुड़ा है। भारतीय समाज व्यक्तिगत स्वच्छता पर विशेष रूप से बल देता है। परंपरागत भारतीय रसोई में स्नान आदि के बाद ही प्रवेश करने और भोजन बनाने की अनुमति हैं। परंपरागत रूप से सामूहिक भोजन तैयार करने वाले व्यक्ति को ‘महाराज’ कहा जाता था और उससे स्नान के बाद और साफ वस्त्र धारण करने के बाद ही भोजन पकाने की अपेक्षा की जाती थी। स्वच्छता का रिश्ता बहुत गहरे रूप से स्वास्थ्य के मामलों से भी जुड़ा है।
व्यक्तिगत स्वच्छता हमें बहुत सारी बीमारियों से बचाती है और सुंदर और सौम्य रहने की प्रेरणा देती है। तथापि आधुनिक समय में भारतीय समाज जितना सचेत व्यक्तिगत स्वच्छता के प्रति है उतना समाजिक स्वच्छता के प्रति नहीं है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों में हमें गंदगी के ढेर नजर आते हैं और लोग बाग जहां-तहां थूकते और शौच करते दिखाई दे जाते हैं। इससे न केवल लोग बीमार होते हैं बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं पर भी अतिरिक्त भार पड़ता है। व्यक्ति की उत्पादन क्षमता पर असर पड़ता है और व्यापक रूप से देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। जो धन और शक्ति देश और समाज के विकास पर व्यय होनी चाहिए, वह बीमारी और अन्य समस्याओं में खर्च हो जाती है। देश में करोडों शिशु मलिनता के कारण बीमारी से प्रभावित होते है और दम तोड़ देते है। ये शिशु दूषित स्पर्श, दूषित जल या दूषित वायु के संपर्क में आने के कारण बीमार होते हैं।
हाल के दिनों में स्वास्थ्य और स्वच्छता की समस्या को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत महत्व मिला है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने विशेष ध्यान दिया है और इस दिशा में सघन प्रयास किए गए हैं। भारतीय लोगों की व्यक्तिगत स्वच्छता का दुनिया भर में कोई सानी नहीं है। भारतीय समाज में व्यक्तिगत स्वच्छता का स्तर इस हद तक है कि अगर किसी व्यक्ति को किसी व्यक्ति के शव के नजदीक जाना पडता है या वह किसी के अंतिम संस्कार में शामिल होता है तो उसे स्नान करना अनिवार्य माना जाता है। श्वांस की शुद्धि के लिए नीम की पत्तियां चबाने की परंपरा है। अंतिम संस्कार क्रिया से लौटने पर न केवल स्नान करना आवश्यक है बल्कि जो वस्त्र पहने हैं उनको बदलना भी जरूरी है। बिना स्नान किए कुछ भी खाना-पीना निषेध है। यज्ञ हवन, पूजा पाठ करना, धूप और अगरबत्ती जलाना आदि कार्य स्वच्छता की दिशा में किए जाते हैं। प्रतिदिन स्नान के बाद ही दैनिक कामकाज शुरू करना भारतीय परंपरा का हिस्सा रहा है।बड़े औद्योगिक परिसर स्थापित करने वाली कंपनियों और उद्योग समूहों को सार्वजनिक स्वच्छता की जिम्मेदारी देनी चाहिए। श्रमिकों के लिए आवास सुविधा उपलब्ध कराने के बाद ही इन कंपनियों को औद्योगिक परिसर स्थापित करने की मंजूरी दी जानी चाहिए। साधारण तौर पर कल-कारखानों के साथ बसी बस्तियों में स्वच्छता की समस्या अधिक होती है। भारत स्वच्छता अभियान में उद्योगों को भी भागीदार बनाना चाहिए और उनको जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए। विद्यालय स्तर पर ही बच्चों में स्वच्छता की आदतें विकसित की जानी चाहिए। विद्यालयों में शौचालय बनाए जाने चाहिए और उनके इस्तेमाल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण भी किया जाना चाहिए। इससे सार्वजनिक स्थलों को साफ रखने में मदद मिलेगी।
भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्था के तौर पर उभर रही है। भारत विश्व के फलक पर अपनी अलग पहचान बना रहा है। विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में भारतीय अपना परचम फहरा रहे हैं। इसलिए कोई कारण नहीं है कि भारत अपनी जमीन को स्वच्छ नहीं बना सके और अपने नागरिक को स्वच्छ वातावरण नहीं दे सके। लेकिन इसके लिए प्रत्येक नागरिक स्वच्छता के अभियान में जुटना होगा और प्रण करना होगा कि वह न तो स्वयं मलिनता में भागीगार होगा और नहीं ही किसी भी इसका भागीदार बनने देगा।