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मध्य प्रदेश का कला परिदृश्य.....
भारत की हृदयस्थली के रूप में स्थापित मध्य प्रदेश कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण स्थलों से परिपूर्ण है। अपने नाम को चरितार्थ करता हुआ यह मध्य में स्थित है। पर्यावरणीय दृष्टि से इसका प्राकृतिक सौन्दर्य मनमोहक है।
इसका अलंकरण करने में समृद्ध जल-स्रोत, हरित तथा पर्णपाती वन, धातु भण्डार, पर्वत और कन्दराएँ सभी जीवनावश्यक स्रोतों की भूमिका रही है। इस भू-प्रदेश में दरियाी घोड़ा, हिप्पोपोटामस आदि सभी विचरण करते थे। जबलपुर के निकट घुघवा ग्राम में विश्व स्तरीय फॉसिल्स पार्क कई हेक्टेयर भूमि में फैला हुआ है तथा अभी-अभी प्राप्त डायनासोर का फॉसिल, धार के निकट मिला है। जीवाश्म, भोपाल के निकट रविशंकर नगर में शुतुरमुर्ग के अंडे पर उकेरे गए आकल्पन इसकी पुष्टि करते हैं।
उस समय का मानव वातावरण से संघर्ष कर ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ की क्रिया में सर्वश्रेष्ठ भूमिका अदा करता रहा।
अद्यतन स्थिति तक पहुँचने में मानव में अनेकों परिवर्तन आते रहे। हमने नए रीति-रिवाजों, वस्तुओं और संस्कारों को अपनाया, पर जो जीवन रस हजारों वर्ष पूर्व विद्यमान था। वह आज भी जस का तस बना है। उसमें निहित रस, गन्ध, स्वाद और जीवन्तता वैसी ही बनी हुई है। इस निरन्तरता ने ‘परम्परा’ का रूप धारण कर लिया है। ये गुण आदिकाल से लेकर आज तक चले आ रहे हैं। हमारे रक्त में परम्परा रूपी कणों ने ही हमें इतना समृद्धशाली बनाया है। इकबाल ने अपनी कुछ पक्तियों में इस प्रकार बयां किया है-
यूनानो मिश्रो रोमा सब मिट गए जहाँ से
यूनानो मिश्रो रोमा सब मिट गए जहाँ सेअब तक मगर बाकी नामों निशां हमारा।
हमारी रंगों में समाए चरावेति-चरावेति के कारण ही हमारा अस्तित्व बना हुआ है। आदिमानव के अस्तित्व का आधार ही श्रम था और श्रम से ही जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करता था और ‘आनन्द’ का संचय करता रहा। आदिमानव के हृदय में चित्रण की शक्तिशाली अभिलाषा विद्यमान थी और एक चित्र से दूसरे चित्र को अधिक प्रभावशाली बनाने की आकांक्षा भी।
आदिम मानव ने प्रस्तर अथवा कन्दरा के चित्रों के महत्व को भिन्न-भिन्न दृष्टि से देखा, जो चित्र पशुओं के हैं उनमें मंत्र मुग्ध करने की शक्ति है। सम्भवतः मानव का विश्वास था कि जिस पशु का वह चित्र बना रहा है, वह उसकी शक्ति पर विजय प्राप्त कर लेगा।
मंत्र मुग्ध करने वाली कला इन्द्रिय ज्ञान से सम्बन्धित है और जीवन को प्रसन्न करती है। यह कला पशुओं के स्वाभाविक गुणों और शक्ति पर निर्भर करती है। इस प्रकार की कला शक्तिमय और इन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न है।
कला संस्कृति के मूल में धार्मिकता का समावेश मिलता है। यूनान, चीन, भारतवासियों को कला की प्रेरणा प्रकृति से ही प्राप्त हुई। इसके प्रमाण प्रागैतिहासिक काल के आदि मानव द्वारा बनाए गए वे चित्र हैं, जिनमें प्रकृति के स्पष्ट दर्शन होते हैं। पेड़-पौधे, वन्य प्राणी, नदी आदि के गेरू कोयला से बनाए गए चित्र आज भी मनुष्य की पर्यावरण से समबद्धता दर्शाते हैं।
मध्य प्रदेश में कन्दराओं में शैल चित्रों का उद्भव दृष्टिगोचर होता है। ये प्राकृतिक रूप से सम्पन्न और सुन्दर परिदृश्य हैं जो मानव को अपनी ओर सहज रूप से आकर्षित करते हैं। साथ ही प्रदेश में व्याप्त प्रागैतिहासिक कला की कड़ियाँ जोड़ने से मानव के विकास की कहानी का पता चलता है। यह पाषाण काल से सम्बद्ध है, पूर्व पाषाण काल 50,000 ई. पूर्व एवं उत्तर पाषाण काल 35,000 ई.पू.।
उत्तर पाषाण युग में शैल चित्रों के सर्वाधिक उदाहरण देखने को मिलते हैं। मध्य प्रदेश के प्रमुख प्रागैतिहासिक कला केन्द्रों की खोज का श्रेय सर्वप्रथम कार्लाइल काकबर्न को जाता है।
विभिन्न प्रागैतिहासिक केन्द्रों की खोज का श्रेय विभिन्न विद्वानों एवं पुरातत्ववेत्ताओं को जाता है। जैसे 1910 में सी.डब्ल्यू एण्डरसन-सिंघनपुर, डी.एच.गार्डन ने पचमढ़ी, स्व. श्री वी.एस. वाकणकर पुरातत्व संग्रहालय व उत्खनन के अधीक्षक, उज्जैन द्वारा भीमबेटका तथा मनोरंजन घोष द्वारा होशंगाबाद की खोज की। इनके अलावा शोधकर्ताओं में श्री गोवर्धन राय शर्मा, आर.वी. जोशी, डॉ.डी.पी.एम. द्वारिकेश, पंचानन मिश्र, अमरनाथ एवं प्रो. कृष्णदत्त बाजपेयी प्रमुख हैं।