Hindi, asked by Rajbeerkaur96621, 1 year ago

muhje ek essay chahiye on apne liye jiye toh kya jiye daunlod

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Answered by honeygupta4
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so here is your answer...
अपने लिए जिए तो क्या जिए

मानसिक रोगियों को सामाजिक ढांचे से दरकिनार कर उन्हें कैद करने वाले तो बहुत मिलते हैं लेकिन संजय शर्मा सरीखे लोग नहीं मिलते.
अपने लिए तो सभी जिया करते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दूसरों के लिए जीते हैं. इस कथन को अगर हकीकत में देखना है तो पर्यटन स्थल खजुराहो के समीप जिला मुख्यालय छतरपुर के संजय शर्मा इस की मिसाल हैं. वे दूसरों के लिए जीते हैं. वे मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों की सेवा करते हैं, जिन्हें लोग पागल कह कर दुत्कार देते हैं. वर्ष 2010 में मध्य प्रदेश सरकार से महर्षि दधिचि पुरस्कार और गौडफ्रे फिलिप्स अवार्ड के अलावा कई पुरस्कारों से सम्मानित, पेशे से वकील संजय शर्मा ऐसे व्यक्तियों की महज देखभाल ही नहीं करते, वे उन्हें शासकीय खर्चे पर चिकित्सा सुविधा भी उपलब्ध कराने का काम पिछले 25 वर्षों से कर रहे हैं. मानसिक रूप से विक्षिप्त लोगों के प्रति उन के लगाव को देख कर आसपास के सभी लोग उन्हें पागलों का वकील भी कहते हैं.

आज उन के प्रयासों के कारण 281 से ज्यादा ऐसे लोग सही हो कर सामान्य जीवन जी रहे हैं. वे बिना किसी के सहयोग से, सड़क पर घूमते विक्षिप्तों व अशक्तजनों को कपड़े पहनाना, ठंड में कंबल या शौल बांटना, खाना खिलाना, बाल बनवाना, नहलानाधुलाना आदि अपने खर्चे पर करते आ रहे हैं. कानून की डिगरी हासिल करने की वजह से चूंकि वे कानून से वाकिफ हैं, इसलिए ऐसे गरीब विक्षिप्तों को वे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 के अनुसार न्यायालय के माध्यम से मानसिक अस्पताल में भेजते हैं. संजय शर्मा का कोई एनजीओ नहीं है. वे बिना किसी की सहायता लिए, इस काम को अंजाम दे रहे हैं.

शौक बना जनून

उन के इस शौक की शुरुआत कैसे हुई, इस के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं जब छोटा था तब हमारे महल्ले में एक पागल व्यक्ति रोज आता था. महल्ले के सभी बच्चे उसे परेशान करते व पत्थर मारते थे. लेकिन मेरी नानी उसे रोज खाना देती थीं. नानी से प्रेरणा ले कर मैं भी रोज मां से बिना बताए घर का बचा खाना उसे देने लगा. खाना खा कर जो संतुष्टि के भाव उस के चेहरे पर आते थे वे ऐसे लगते थे जैसे किसी जरूरतमंद को कहीं से बहुत सारा पैसा मिल गया हो.
कठिनाइयां भी हैं

सेवा कार्य करते समय संजय को कई बार परेशानियों का सामना भी करना पड़ा है. कुछ विक्षिप्त तो पहली बार उन से मिलने पर वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा वे आम लोगों के साथ करते हैं. मारने के लिए दौड़ना, गालियां देना, दिए गए सामान को फेंक देना. इस के बावजूद वे उन से बिलकुल सहज भाव से मिलते हैं. जैसे वे किसी सामान्य आदमी से मिलते हैं. वे उन की पसंद की चीजों के बारे में पता करते हैं. उस का लालच देते हैं. तब वे पास आने को तैयार होते हैं. कई मरीज जिन्हें सालों से जंजीरों में बांध कर रखा गया होता है वे हिंसक हो जाते हैं और पास में आनेजाने वालों को मारते हैं. संजय कहते हैं, ‘‘ऐसे मरीजों के पास जाने में मुझे भी कुछ डर लगा रहता है पर धीरेधीरे बात करने पर उन से दोस्ताना व्यवहार हो जाता है. उन को नहलाना, खाना खिलाना, गंदगी साफ करने तक का काम मैं करता हूं. तब जा कर उन का विश्वास हासिल कर पाता हूं.’’

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honeygupta4: humm?
pratapkumbhar: what happens
pratapkumbhar: say that
honeygupta4: actually i don't understand what you asked
pratapkumbhar: can you speak hindi
honeygupta4: ya sure
pratapkumbhar: kya padhti ho
honeygupta4: ma class 9 ma hu
honeygupta4: aur 10 ma aana vali hu
pratapkumbhar: ha okok
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