muktibodh ki Kavya kala ka vivaran
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मुक्तिबोध की काव्य यात्रा छायावाद से प्रारंभ होकर प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता से होते हुए अपने काव्य में भाषा और शिल्प को एक नया रूप प्रदान किया है। ... अतः मुक्तिबोध का कहना था कि यथार्थ की कलात्मक परिणति फैंटेसी में ही निहित होती है। डायरी में मुक्तिबोध लिखते है, 'कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव-क्षण।
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मुक्तिबोध की कविता एक चुनौतीपूर्ण व्यक्तिगत, सामाजिक और राजनीतिक कोलाज है। प्रभाकर माचवे ने इसे "वर्निका इन वर्स" कहा। कवि गाँवों, कस्बों और शहरों, गुफाओं और जंगलों, जंगल और नदी-तल, रेत-टीलों और दूर-दूर के अधिकांश तारों और सौर प्रणालियों में जाता है।
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