Hindi, asked by priyanshupurohit84, 9 days ago

munshi premchad ke Kuch questions h .please answer Sahi dena ​

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Answered by paldebjeet30
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Answer:

b ki re chumiye geli naki afsos I have to be a great e na ho jaye aur na kano ato ki message to be the class is the thing should have to go to

Explanation:

i seee the class is not working for a big difference in your country the cricketers in practice and to make a big fan the flames Salman and i seee I am present invention

Answered by Anonymous
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Answer:

  1. हिंदी साहित्य में अपने पथ के अनूठे अन्वेषक जैनेन्द्र कुमार का आज (02 जनवरी) जन्मदिन है। जैनेन्द्र कुमार ने प्रेमचन्द के सामाजिक यथार्थ के मार्ग को नहीं अपनाया, जो अपने समय का राजमार्ग था लेकिन वे प्रेमचन्द के विलोम नहीं थे, जैसा कि बहुत से समीक्षक सिद्ध करते रहे हैं; वे प्रेमचन्द के पूरक थे। प्रेमचन्द और जैनेन्द्र को साथ-साथ रखकर ही जीवन और इतिहास को उसकी समग्रता के साथ समझा जा सकता है। जैनेन्द्र का सबसे बड़ा योगदान हिन्दी गद्य के निर्माण में था। भाषा के स्तर पर जैनेन्द्र द्वारा की गई तोड़-फोड़ ने हिन्दी को तराशने का अभूतपूर्व काम किया। जैनेन्द्र का गद्य न होता तो अज्ञेय का गद्य संभव न होता। हिन्दी कहानी ने प्रयोगशीलता का पहला पाठ जैनेन्द्र से ही सीखा।
  2. जैनेन्द्र ने हिन्दी को एक पारदर्शी भाषा और भंगिमा दी, एक नया तेवर दिया, एक नया `सिंटेक्स' दिया। आज के हिन्दी गद्य पर जैनेन्द्र की अमिट छाप है। जैनेंद्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और आध्यात्मिक तत्वों के समावेश से दूरूहता आई है परंतु ये सारे तत्व जहाँ-जहाँ भी उपन्यासों में समाविष्ट हुए हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर का सृजन प्रतीत होते हैं। यही कारण है कि जैनेंद्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से अप्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित।
  3. उनकी प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होते हैं। इसी का एक परिणाम यह भी हुआ है कि जैनेंद्र के उपन्यासों में चरित्रों की भरमार नहीं दिखाई देती। पात्रों की अल्पसंख्या के कारण भी जैनेंद्र के उपन्यासों में वैयक्तिक तत्वों की प्रधानता रही है। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के साहित्य की सामाजिकता के बाद व्यक्ति के 'निजत्व' की कमी खलने लगी थी, जिसे जैनेंद्र ने पूरी की. इसलिए उन्हें मनोविश्लेषणात्मक परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है। वह हिंदी गद्य में 'प्रयोगवाद' के जनक भी थे। उनका जन्म 2 जनवरी, 1905 को अलीगढ़ के कौड़ियागंज गांव में हुआ था। बचपन में उनका नाम आनंदीलाल था। उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनके पिता चल बसे। उनका लालन-पोषण उनकी मां और मामा ने किया।
  4. जैनेंद्र की प्रारंभिक शिक्षा उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर में उनके मामा के गुरुकुल में हुई। उनका नामकरण 'जैनेंद्र कुमार' इसी गुरुकुल में हुआ। जैनेंद्र ने अपनी उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से प्राप्त की। वह कुछ समय तक लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे। 1921 में पढ़ाई छोड़कर वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। उस दौरान ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया। जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने लेखन कार्य शुरू किया। उनके उपन्यास - 'परख',, 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी', 'विवर्त', 'सुखदा', 'व्यतीत' तथा 'जयवर्धन', कहानी संग्रह - 'फाँसी', 'वातायन', 'नीलम देश की राजकन्या', 'एक रात', 'दो चिड़ियाँ', 'पाजेब', 'जयसंधि' तथा 'जैनेंद्र की कहानियाँ' (सात भाग), 'प्रस्तुत प्रश्न', 'जड़ की बात', 'पूर्वोदय', 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', 'मंथन', 'सोच विचार', 'काम, प्रेम और परिवार' तथा 'ये और वे', 'मंदालिनी', 'प्रेम में भगवान' तथा 'पाप और प्रकाश', 'तपोभूमि', 'साहित्य चयन', 'विचारवल्लरी', आदि का हिंदी में एक बड़ा पाठक वर्ग है।
  5. क्रांतिकारिता तथा आतंकवादिता के तत्व भी जैनेंद्र के उपन्यासों के महत्वपूर्ण आधार है। उनके सभी उपन्यासों में प्रमुख पुरुष पात्र सशक्त क्रांति में आस्था रखते हैं। बाह्य स्वभाव, रुचि और व्यवहार में एक प्रकार की कोमलता और भीरुता की भावना लिए होकर भी ये अपने अंतर में महान विध्वंसक होते हैं। उनका यह विध्वंसकारी व्यक्तित्व नारी की प्रेमविषयक अस्वीकृतियों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप निर्मित होता है। इसी कारण जब वे किसी नारी का थोड़ा भी आश्रय, सहानुभूति या प्रेम पाते हैं, तब टूटकर गिर पड़ते हैं और तभी उनका बाह्य स्वभाव कोमल बन जाता है। जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः उपन्यास में प्रधानता लिए हुए होते हैं।
  6. उपन्यासकार ने अपने नारी पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन जैनेंद्र कर सके हैं। 'सुनीता', 'त्यागपत्र' तथा 'सुखदा' आदि उपन्यासों में ऐसे अनेक अवसर आए हैं, जब उनके नारी चरित्र भीषण मानसिक संघर्ष की स्थिति से गुज़रे हैं। नारी और पुरुष की अपूर्णता तथा अंतर्निर्भरता की भावना इस संघर्ष का मूल आधार है। वह अपने प्रति पुरुष के आकर्षण को समझती है, समर्पण के लिए प्रस्तुत रहती है और पूरक भावना की इस क्षमता से आल्हादित होती है, परंतु कभी-कभी जब वह पुरुष में इस आकर्षण मोह का अभाव देखती है, तब क्षुब्ध होती है, व्यथित होती है। इसी प्रकार से जब पुरुष से कठोरता की अपेक्षा के समय विनम्रता पाती है, तब यह भी उसे असह्य हो जाता है।
  7. जैनेंद्र ने अपनी रचनाओं में मुख्यपात्र को रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हटकर दिखाया, जिसकी आलोचना भी हुई। जीवन और व्यक्ति को बंधी लकीरों के बीच से हटाकर देखने वाले जैनेंद्र के साहित्य ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा दी। जैनेंद्र ने 1929 में अपनी पहली कहानी संग्रह 'फांसी' की रचना की, जिसने इनको प्रसिद्ध कहानीकार के रूप में स्थापित किया। उसके बाद उन्होंने कई उपन्यासों की रचना की। जैनेंद्र को उनकी रचनाओं के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित किया
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