Munshi Premchand ki kahani Mamta ka Saransh
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बाबू रामरक्षादास दिल्ली के एक ऐश्वर्यशाली खत्री थे, बहुत ही ठाठ-बाट से रहनेवाले। बड़े-बड़े अमीर उनके यहॉँ नित्य आते-आते थे। वे आयें हुओं का आदर-सत्कार ऐसे अच्छे ढंग से करते थे कि इस बात की धूम सारे मुहल्ले में थी। नित्य उनके दरवाजे पर किसी न किसी बहाने से इष्ट-मित्र एकत्र हो जाते, टेनिस खेलते, ताश उड़ता, हारमोनियम के मधुर स्वरों से जी बहलाते, चाय-पानी से हृदय प्रफुल्लित करते, अधिक और क्या चाहिए? जाति की ऐसी अमूल्य सेवा कोई छोटी बात नहीं है। नीची जातियों के सुधार के लिये दिल्ली में एक सोसायटी थी। बाबू साहब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कार्य को असाधारण उत्साह से पूर्ण करते थे। जब उनका बूढ़ा कहार बीमार हुआ और क्रिश्चियन मिशन के डाक्टरों ने उसकी सुश्रुषा की, जब उसकी विधवा स्त्री ने निर्वाह की कोई आशा न देख कर क्रिश्चियन-समाज का आश्रय लिया, तब इन दोनों अवसरों पर बाबू साहब ने शोक के रेजल्यूशन्स पास किये। संसार जानता है कि सेक्रेटरी का काम सभाऍं करना और रेजल्यूशन बनाना है। इससे अधिक वह कुछ नहीं कर सकता।
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ममता कहानी का सारांश
ममता कहानी जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित छोटी, किंतु अत्यधिक समृद्ध कृति है। नारी पात्र ममता के चरित्र के ताने- बाने से इसका कथानक निर्मित है। प्रसाद जी ने ममता के माध्यम से बाल-विधवा की करुण कथा चित्रित की है, साथ ही भारतीय नारी की गरिमा भी।
ममता एक बाल-विधवा युवती है, जो रोहतास-दुर्ग के महल में बैठी सोन नदी के प्रबल बेग को देख रही थी। बालविधवा होने के कारण उसका जीवन दु:खों से भरा था। वह रोहतास दुर्ग के मंत्री चूड़ामणि की पुत्री थी। उसके पास सभी सुख-साधन थे परंतु भारतीय समाज में नारी का विधवा होना उसका सबसे बड़ा अपराध है, इसलिए उसके दु:खों का कोई अंत नहीं था। तभी चूड़ामणि महल में आते हैं, परंतु ममता उनके आगमन को न जान सकी। वह अपने दु:खों में बेसुध थी। चूड़ामणि अपनी पुत्री के दु:ख को देखकर चिंतामग्न होकर वापस लौट जाते हैं। एक पहर के बाद वे पुन: ममता के पास आए उनके साथ सेवक चाँदी के थाल लेकर आए थे। थाल देखकर ममता ने पूछा ‘‘यह क्या है?’’ थालों में स्वर्ण देखकर ममता को आभास हो जाता है कि उसके पिता ने मलेच्छ की रिश्वत स्वीकार कर ली है। उसके पिता भविष्य के प्रति उसे आगाह करते हैं परंतु ममता भगवान की इच्छा के विरुद्ध किए गए कृत्य को अपराध मानते हुए अपने पिता को धन को वापस लौटा देने को कहती है।
दूसरे दिन रोहतास-दुर्ग में डोलियों का रेला आने पर चूड़ामणि उसे रोकते हैं। पठान उसे महिलाओं का अपमान बताते हैं। युद्ध होने पर चूड़ामणि मारा जाता है व राजा-रानी और कोष सब पर शेरशाह का आधिपत्य हो जाता है। पर ममता कहीं नहीं मिलती, वह दुर्ग से निकल जाती है।
काशी के उत्तर में धर्मचक्र विहार में जहाँ पंचवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए मिले थे, उसी स्तूप के खंडहरों में एक झोपड़ी में एक महिला भगवत्गीता का पाठ कर रही है। तभी झोपड़ी के दरवाजे पर एक व्यक्ति आश्रय माँगने आता है, जो कि एक मुगल है, जो चौसा युद्ध में शेरशाह से पराजित होकर आया था। ममता उसे आश्रय देने से मना कर देती है। वह सोचती है कि सभी विधर्मी दया के पात्र नहीं होते। मुगल के वापस लौटने के प्रश्न पूछने पर वह ब्राह्मणी होने के नाते अपने आतिथ्य धर्म का पालन करना अपना कर्तव्य समझती है। वह सैनिक को अपनी झोपड़ी में आश्रय देकर स्वयं टूटे हुए खंडहरों में चली जाती है। प्रभात में ममता बहुत से सैनिकों को उस पथिक को ढूँढ़ते हुए देखती है। पथिक अपने सैनिकों से ममता का ढूँढ़ने को कहता है, पर ममता वहाँ नहीं मिलती। पथिक लौटते हुए ममता का घर बनवाने का आदेश देता है। अब ममता सत्तर वर्ष की वृद्धा हो चुकी थी। चौसा के मुगलों व पठानों के युद्ध को भी काफी समय बीत गया था। ममता बीमार थी, उसकी झोपड़ी में कई महिलाएँ उसकी सेवा कर रही थीं क्योंकि वह भी उनके सुख-दु:ख में उनके काम आती थी। अचानक एक घुड़सवार वहाँ आता है, वह हाथ में एक चित्र लिए होता है। ममता उसे अपने पास बुलाती है और कहती है कि ‘मैं नहीं जानती वह कौन था, जिसने मेरी झोपड़ी में विश्राम किया था। उसने मेरा घर बनवाने का आदेश दिया था। आज मैं स्वर्गलोक जाती हूँ, अब तुम यहाँ जो चाहो करो।’ ममता के प्राण-पखेरु उड़ जाते हैं। बाद में अकबर ने वहाँ एक अष्टकोण मंदिर बनवाया और उस पर लिखवाया कि ‘‘सातों देश के नरेश हुमायूँ ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था।’’ पर उस पर ममता का कहीं जिक्र नहीं किया।
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