Hindi, asked by Samairaparmar, 8 months ago

Munshi Premchand ki kahani panch parmeshvar ka nam yah kyu raha gaya ha 30 - 40 words ma answer kara

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Answered by reenareena17653
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136 साल पहले यूपी के लमही में मुंशी प्रेमचंद का जन्म हुआ. तारीख 31 जुलाई की थी. उनने जिंदगी में 300 से ज्यादा कहानियां लिखी. ये हफ्ता उनका है. उनके जन्मदिन का है. इसलिए इस पूरे हफ्ते हम आपको उनकी लिखी कहानियां पढ़ाएंगे. कल आपको कहानी पढ़ाई थी मंत्र. आज दूसरा रोज है. आज अलगू और जुम्मन वाली कहानी. पंच-परमेश्वर. पढ़िए. साझा कीजिए, औरों को भी पढ़ाइए. प्रेमचंद का हफ़्ता मनाइए.

जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी. साझे में खेती होती थी. कुछ लेन-देन में भी साझा था. एक को दूसरे पर अटल विश्वास था. जुम्मन जब हज करने गए थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गए थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे. उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता. केवल विचार मिलते थे. मित्रता का मूलमंत्र भी यही है.

इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे. और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे. अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की थी, खूब रकाबियां मांजी, खूब प्याले धोए. उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था. क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी. अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे. उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था. वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती. जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से. बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए. अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में उसने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती?

मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे. उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गांवों में जुम्मन की पूजा होती थी. उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था. हलके का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी-सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे. अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे.

जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी. उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी. परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था. जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी. जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया. उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए गए. हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गई. पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी. जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी. जुम्मन शेख भी निठुर हो गए. अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं.

बुढ़िया न जाने कब तक जिएगी. दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियां नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गांव मोल ले लेते.

कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा. पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की. जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वामी के प्रबंध में दखल देना उचित न समझा. कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा. अंत में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा. बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा. तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूंगी.

जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया. रुपये क्या यहां फलते हैं?

खाला ने नम्रता से कहा. मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं?

जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब दिया. तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आई हो?

खाला बिगड़ गईं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी. जुम्मन हंसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ जाते देख कर मन ही मन हंसता है. वह बोले. हां, जरूर पंचायत करो. फैसला हो जाय. मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं.

पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था. आस-पास के गांवों में ऐसा कौन था, जो उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो. ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके ? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके ? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे नहीं.

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिए आसपास के गांवों में दौड़ती रहीं. कमर झुक कर कमान हो गई थी. एक-एक पग चलना दूभर था. मगर बात आ पड़ी थी. उसका निर्णय करना जरूरी था.

बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आंसू न बहाए हों. किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूं-हां करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियां दीं!

कहा. कब्र में पांव लटके हुए हैं, आज मरे कल दूसरा दिन. पर हवस नहीं मानती. अब तुम्हें क्या चाहिए ? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो. तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला. झुकी हुई कमर, पोपला मुंह, सन के-से बाल-इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हंसी क्यों न आवे ? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो. चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी. लाठी पटक दी और दम ले कर बोली-बेटा, तुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले

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