निबंध लिखिए यदि विद्यालय बंद हो गया तो in hindi
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स्कूल नहीं होने वाली स्थिति में पहली संभावना जो साफ़-साफ़ नज़र आती है वो है कि हमारी मौखिक भाषा का स्वरूप काफी उन्नत होता। लोग काफी व्यावहारिक होते। वे एक-दूसरे की बात से फट भांप लेते कि सामने वाला क्या कहना चाहता है? या फिर उसके कहने का आशय क्या है? क्योंकि सारा संवाद जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में हो रहा होता। अपनी बात को प्रभावशाली और असरदार ढंग से कहने वाले लोगों का बहुत महत्व होता। ख़ामोश रहने वाले या कम बोलने वाले लोगों का भी अपना समूह होता।
एक ख़ास बात है कि लोगों के विचारों में मौलिकता होती क्योंकि स्कूल में जिस तरीके से सामूहिक सामाजीकरण होता है वह स्कूल की अनुपस्थिति में कतई संभव नहीं होता। समाज की परंपराओं के खिलाफ व्यक्त होने वाले विचारों को सेंसर करने की कोशिश सामाजिक स्तर पर होती जैसा कि आज भी दिखाई देता है।
जहाँ परंपराओं के नाम पर नए विचारों या वैचारिक खुलेपन पर पाबंदी लगाने की कोशिश की जाती। चाहें वह अपनी जाति, धर्म या क्षेत्र से बाहर शादी करने का मामला हो या फिर किसी ऐसी नौकरी या पेशे में जाने का मामला हो परंपरागत रूप से चुने जाने वाले पेशों से बहुत अलग है। जैसे संगीत, फिल्म, निर्देशन, कला इत्यादि।
‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ वाली स्थिति होती
अगर स्कूल जैसी कोई संस्था नहीं होती तो समाज में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली स्थिति होती। जो दबंग होता वह बाकी लोगों को वैचारिक और आर्थिक आधार पर दबाने की कोशिश करता। शिक्षा के माध्यम से विचारों में जो खुलापन आता है, उसकी रफ्तार बहुत धीमी होती। अपने विचारों के प्रति प्रतिबद्ध रहने वाले लोगों का समाज के ऐसे लोगों से सीधा सामना होता जो अपनी बात को बाकी लोगों के ऊपर थोपना या लादना चाहते हैं।
भारत में शिक्षा, वास्तविक स्थिति, असली सवाल, समस्या और समाधानआज भी शिक्षा के विस्तार के बावजूद बहुत से तबके ऐसे हैं जो चाहते हैं कि लोगों को ढंग की शिक्षा न मिले ताकि उनके ऊपर आसानी से शासन किया जा सके। उनकी सोच को अपनी जरूरत के हिसाब से दिशा दी जा सके। सवालों के ऊपर पाबंदी होती, जैसा निर्देशित किया जा रहा है वैसा करो वाली राजशाही या तानाशाही या फिर तालिबानी सोच का वर्चस्व समाज पर हावी होता है। लोगों आपस में कबीलों की तरह लड़ते-झगड़ते, एक आशंका ऐसी भी होती।
इसे स्कूल पर होने वाले हमलों, स्कूलों में आग लगाने की घटनाओं, स्कूली बच्चों के अपहरण की घटनाओं से जोड़कर देखा जा सकता है। यथास्थिति और बदलाव विरोधी समाजों में शैक्षिक संस्थाओं को निशाना बनाने की कोशिशें इसी आशंका की तरफ संकेत करती हैं।
जिंदगी रोजमर्रा की जरूरतों में उलझी होती
स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय और शैक्षिक संस्थाओं के अभाव में लोगों के लिए एक दायरे से बाहर जाकर सोचना मुश्किल होता। लोग अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों में उलझे होते। इससे बाहर निकलने वाले लोगों को फिर से खींचकर बुनियादी जरूरतों के तरफ लेकर आते। सामाजिक संघर्षों के कारण शारीरिक ताक़त का ज्यादा महत्व होता। हाँ, समय के साथ रणनीति की भी भूमिका को स्वीकार कर लिया जाता और ऐसे लोगों का महत्व स्थापित होता जो कुशल रणनीति बना सकते थे। या लोगों के दिमाग को भ्रम में डाल सकते थे।
पुराने समय वाली गुरु-शिष्य परंपरा जैसी कोई चीज़ भी होती। जिसमें शिक्षा के अवसर चुनिंदा लोगों तक सीमित होते। यानि ज्ञान तक बेहद सीमित लोगों की पहुंच होती और बाकी लोग मानसिक गुलामों जैसा जीवन जीने को अभिशप्त होते।
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