Hindi, asked by divyanshsharma293, 9 months ago

निबन्ध- आत्मनिर्भर भारत : राष्ट्रीय विकास में छात्रों की भूमिका

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Answered by aadhyajha329
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Answer:

यह सहयोग यदि आवश्यकता से अधिक मिलने लगे, तो वह दूसरी पर निर्भर रहने का आदी हो जाता है । दूसरों पर उसकी निर्भरता उसकी परतन्त्रता का कारण भी बन जाती है । दूसरे पर निर्भर रहकर व्यक्ति अपने जीवन के सुखों का वास्तविक उपभोग नहीं कर सकता, इसलिए कहा गया है- ”पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।” वास्तव में, स्वावलम्बन या आत्मनिर्भरता ही मनुष्य को स्वाधीन बनने की प्रेरणा देती है । आत्मनिर्भरता की स्थिति में व्यक्ति अपनी इच्छाओं को अपनी सुविधानुसार पूरा कर पाता है ।

उसे इसके लिए दूसरों के सहयोग की आवश्यकता नहीं पड़ती । कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ‘साकेत’ में उर्मिला लक्ष्मण संवाद के रूप में स्वावलम्बन को महिमामण्डित करते हुए लिखा है-

“यह पापपूर्ण परावलम्बन चूर्ण होकर दूर हो,

फिर स्वावलम्बन का हमें प्रिय पुण्य पाठ पढ़ाइए ।”पारिभाषिक रूप से देखें, तो आत्मनिर्भरता का तात्पर्य होता है- किसी वस्तु अथवा कार्य हेतु स्वयं पर निर्भर रहना । हम अपने चारों ओर की प्रकृति पर नजर डालें, तो पता चलता है कि छोटे-बड़े जीव-जन्तु भी आत्मनिर्भर हैं ।

उन्हें अपने भोजन के लिए भी दूसरे पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ती । कुछ पशु-पक्षी तो जन्म लेने के तुरन्त बाद चलने-फिरने एवं स्वयं भोजन प्राप्त कर सकने में सक्षम हो जाते हैं ।

मनुष्य के साथ ऐसा नहीं है, उसे जन्म के बाद कुछ समय तक अपने परिवार पर निर्भर रहना पड़ता है । इसके बाद आत्मनिर्भर होने तक वह परिवार के साथ-साथ समाज का सहयोग भी प्राप्त करता है ।

मनुष्य स्वभावतः सुख की चाह तो रखता है, लेकिन इसके लिए वह परिश्रम करने से यथासम्भव बचने की कोशिश करता है । इसी कारण वह अपने कार्यों एवं वस्तुओं के लिए दूसरों पर निर्भर होने लगता है ।आत्मनिर्भरता केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है । स्वतन्त्रता के बाद कई वर्षों तक भारत खाद्यान्न के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर था । इसके कारण इसे कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था ।

साठ के दशक में हुई हरित क्रान्ति के बाद भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना । यह भारत की आत्मनिर्भरता का ही नतीजा रहा कि देश की जनता की खुशहाली में स्वाभाविक तौर पर वृद्धि हुई ।

हमारी भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने कहा है- “एक राष्ट्र की शक्ति उसकी आत्मनिर्भरता में है, दूसरी से उधार लेकर काम चलाने में नहीं ।” आत्मनिर्भरता से ही मनुष्य की प्रगति सम्भव है ।

आत्मनिर्भर व्यक्ति ही अपना एवं अपने परिवार का भरण-पोषण करने में सक्षम होता है । बैसाखी के सहारे चलने बाले व्यक्ति की बैसाखी छीन ली जाए, तो वह चलने में असमर्थ हो जाता है । ठीक यही स्थिति दूसरों के सहारे जीने वाले लोगों की भी होती है ।

मनुष्य यदि सिर्फ प्रकृति पर ही निर्भर रहता, तो उसने जीवन के हर क्षेत्र में जो प्रगति हासिल की है, उसे वह कभी प्राप्त नहीं कर पाता । मनुष्य की आत्मनिर्भरता ने ही उसे पशुओं से अलग किया है ।

हालाँकि पशु स्वाभाविक रूप से अधिक आत्मनिर्भर होते है, किन्तु आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की चाह मनुष्य में अधिक होता है । वह अपने जीवन में सुख की प्राप्ति के लिए हर प्रकार के साधन जुटाना चाहता है, इसके लिए उसे स्वयं परिश्रम करने की आवश्यकता पड़ती है ।

आत्मनिर्भरता की उसकी यही चाह उसकी प्रगति का कारण बनती है । गृहस्थ जीवन से पहले व्यक्ति का आत्मनिर्भर होना अत्यन्त आवश्यक है । दूसरों पर निर्भर लोगों के लिए गृहस्थ जीवन दु:खों का पहाड़ साबित होता है ।

इसलिए गृहस्थ जीवन की शुरूआत से पहले लोग रोजगार की तलाश में जुट जाते हैं । आत्मनिर्भरता आत्मविश्वास को बढ़ाने में सहायक होती है, जिसके कारण सफलता की राह आसान हो जाती है ।

आत्मनिर्भर व्यक्ति अपने समय का सदुपयोग भली-भांति कर पाने में सक्षम होता है । वह समाज में प्रतिष्ठा का पात्र बनता है । यदि कोई महान् लेखक बनने का सपना देखता है, तो उसे स्वयं लिखना ही पड़ेगा, दूसरों पर निर्भर रहकर वह महान् लेखक कदापि नहीं बन सकता ।

एक वैज्ञानिक स्वयं अपने शोध द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँचता है, दूसरों के शोध के आधार पर वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता । खिलाड़ियों को जीत का स्वाद चखने के लिए स्वयं खेलना पड़ता है ।

यदि कोई छात्र अपने जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहता है, तो उसे स्वयं परीक्षा में शामिल होना पड़ेगा और परीक्षा में मनोवांछित सफलता प्राप्त करने के लिए उसे स्वयं अध्ययन करना होगा ।

महापुरुषों के जीवन से भी हमें आत्मनिर्भरता की शिक्षा मिलती है । महात्मा गाँधी अपना सामान्य कार्य भी खुद किया करते थे । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी “दैव दैव आलसी पुकारा” लिखकर हमें परिश्रमी एवं आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी है ।

Explanation:

Answered by faizanbhai641
7

Answer:

किसी भी देश का भविष्य उस देश के बच्चों , छात्रों और युवाओं पर ही निर्भर करता है। क्योंकि ये तीनोँ ही किसी भी राष्ट्र के मजबूत आधार स्तंभ होते हैं जिनके कंधों पर एक विकसित , महाशक्तिशाली राष्ट्र का सपना पलता है और साकार भी होता है।

ये विद्यार्थी अपार संभावनाओं और असीमित प्रतिभाओं के बीज स्वरूप होते हैं। जो आगे चलकर भविष्य में किसी भी राष्ट्र का चहमुखी विकास करने में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा सकते हैं। और उस राष्ट्र को पूरे विश्व में एक अलग ही पहचान दिलाने व आत्म निर्भर भारत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

Students Contribution in National Development : किसी भी देश का भविष्य उस देश के बच्चों , छात्रों और युवाओं पर ही निर्भर करता है। क्योंकि ये तीनोँ ही किसी भी राष्ट्र के मजबूत आधार स्तंभ होते हैं जिनके कंधों पर एक विकसित , महाशक्तिशाली राष्ट्र का सपना पलता है और साकार भी होता है।

Students Contribution in National Development essay

ये विद्यार्थी अपार संभावनाओं और असीमित प्रतिभाओं के बीज स्वरूप होते हैं। जो आगे चलकर भविष्य में किसी भी राष्ट्र का चहमुखी विकास करने में अपनी सक्रिय भागीदारी निभा सकते हैं। और उस राष्ट्र को पूरे विश्व में एक अलग ही पहचान दिलाने व आत्म निर्भर भारत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

विद्यार्थी और विद्यार्थी जीवन

विद्यार्थी जीवन वह समय होता है जब कोई बच्चा व युवा गजब के आत्मविश्वास , उत्साह , ऊर्जा और जोश से भरा रहता है। और उनके दिमाग में प्रतिदिन नए-नए विचार जन्म लेते हैं , नई-नई योजनाएं आकार लेने लगती हैं। असंभव को संभव कर दिखाने का जज्बा इनके अंदर समाया रहता है।

यही वह समय होता है जब विद्यार्थियों को एक सही मार्गदर्शन , एक सच्चे अर्थों में प्रेरक या मार्गदर्शक की जरूरत होती है। जो उनके अंदर की अपार क्षमताओं , संभावनाओं और असीमित ऊर्जा को एक सही दिशा दे सके । अगर उस समय उनका सही तरह से मार्गदर्शन किया जाय तो , देश को प्रगति के मार्ग पर चलने और विश्व में एक अलग पहचान बनाने से कोई नहीं रोक सकता।

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