निबन्ध
प्रेम विस्तार, स्वार्थ संकुचन है।
स्वामी विवेकानंद
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Answer:
"प्रेम गली अति सांकरी तामे दो न समाय ।
जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाय"
प्रेम ईश्वर का रूप है । एक ऐसा दिव्य भाव जो मनुष्य को व्यष्टी से समष्टि तक की यात्रा कराने का अद्भुत सामर्थ्य रखता है । प्रेम होना तभी संभव है जब हम स्व यानि ख़ुद से ऊपर उठकर दूसरे के विषय में सोचने लगते है । प्रेम एक चिरस्थायी गुण है। यह पल-पल घटने या बदलने वाला गुणधर्म नहीं है। इसकी शक्ति अपार है परंतु तब जब यह सच्चा प्रेम हो । यह एक ऐसी स्वतंत्र भावना है जो आपको अपने प्रेमास्पद के अधीन कर देती हैं। इसकी राह पर चलना आसान काम नहीं है ।
जब मनुष्य सच्चा प्रेम करता है तो उसका विस्तार होता है अर्थात् वह वैचारिक धरातल पर अपनी स्वार्थ लोलुपता को त्याग कर अग्रसर होने लगता है । यह अगुआई हमें हमारी स्वार्थपूर्ति के सुख से अधिक अच्छी लगने लगती है । वस्तुत: तब हम अपने प्रेमास्पद के सुख और कल्याण के विषय में सोचने लगते है । किसी को चाहना और उसे प्राप्त कर लेना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो तब है जब हम अपने प्रेमास्पद के लिए सर्वस्व न्योछावर करने में भी किंचित न हिचकिचाएं । ऐसा संभव होता है जब प्रेम सच्चा होता है । स्वार्थ स्वयं शनै: शनै: संकुचित होता जाता है । यही भाव लेकर भक्त अपने भगवान को कह देता है "जो तुदू भावे"या "हम है उसमें राज़ी जिसमें तेरी रज़ा है" इसी गहन भाव को लेकर सूरदास जी ने कहा "बिना मोल को चेरो, भरोसो दृढ़ इन चरन केरो "
प्रेम जगत की बातें निराली होती है । यहां प्रेमी की विशालता इतनी व्यापक स्तर पर पहुंच जाती है या यूं कहे कि वह अपने प्रेम के इस स्तर पर पहुंच जाता है कि उसके निजी स्वार्थ संकुचित ही नहीं हो उठते हैं बल्कि तिरोहित होने लगते हैं और वह अपने प्रेमास्पद के हाथों बिकने तक की तैयारी कर लेता है । इसी कारण व्रजगोपियों के प्रेम को देखकर उद्धव का ब्रह्मज्ञान पानी-पानी होकर बह गया |
प्रेम के विस्तार मे समस्त जगत की कठिन परिस्थितियां सरल लगती है । प्रेम निर्भीक होता है । इसी निर्भीकता में डूबकर मीरा ने विष -पान कर लिया । प्रेम में अहम भाव का सर्वथा अभाव हो जाता है अर्थात् 'मै ' पना मिट जाता हैं । अहम से त्वम पर व्यक्ति पहुंच जाता हैं ।
प्रेम की गली बड़ी संकरी है किंतु इसके विस्तार के आगे करोड़ों-करोड़ो ब्रह्मांड भी छोटे पड़ जाते है । इसी प्रेम भाव के कारण अखिल कोटी ब्रह्मांड नायक श्रीकृष्ण व्रजगोपियों के ऋणी हुए । साक्षात् लक्ष्मी जिनकी सहचरी है वे श्रीकृष्ण गांव की गोपियों से कहते है कि "मै तुम्हारे ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता ।" ये प्रेम की पराकाष्ठा है ।
वस्तुत: प्रेम देकर आनंदित होता है अत: आपका दिवाला निकाल देता है । यही इसका अनूठापन भी है। यहां सर्वस्व न्योछावर कर के भी आपका मन संतुष्ट नहीं हो पाता | अत: आप अनजाने ही देने के बाद भी अपने प्रेमास्पद का सर्वस्व छीन लेते है तात्पर्य है कि प्रेम वह संपदा है जिसके आगे त्रैलोक्य की सम्पत्ति भी फीकी पड़ जाती है । इसी प्रेमकी पराकाष्ठा के कारण श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कह दिया कि "सर्वधर्मान परित्यज्यं मामेक: शरणम् व्रज: "
ये प्रेम ही तो था जिसके वश होकर "अयोध्या के राजा राम ने शबरी के जूठे बेर तक खा लिए ।" प्रेम में नेम नहीं चलते अर्थात् प्रेम नियमों में बंधकर नही रह पाता । हां प्रेमी स्वयं जरूर बंधन स्वीकार कर लेता है जैसे "श्रीकृष्ण अपनी यशोदा मैया की रस्सी में बंधकर दामोदर कहलाए, तनिक माखन के लिए चोरी कर माखन चोर बन गए ।" "दुर्योधन के मेवा त्यागकर श्रीकृष्ण ने विदुरानी के केले के छिलके तक आरोग लिए ।"
ये सब प्रेम जगत का ही व्यापार है जहां मानव नहीं उसका रचयिता परमेश्वर या परम सत्ता भी ऋणी हो जाती है । अस्तु ये विस्तार अपरिमेय है अनंत है तभी तो श्री भरत जी ने यही मांग रखी कि मेरा रामजी के प्रति प्रेम निरंतर बढ़ता रहे इस प्रेम रूपी चन्द्र को कभी भी पूर्णिमा न आए अर्थात ये सतत विकसित हो। वास्तव में यह एक ऐसा अहसास है जो आपको अपने संकुचित दायरे से उठाकर त्यागवृत्ती के शीर्ष पर बैठा कर फैला देता है। अस्तु विवेकानंद का यह कथन अक्षरशः सत्य है कि " प्रेम विस्तार स्वार्थ संकुचन ।"
प्रेम एक ऐसा दरिया है जिसकी धार उल्टी बहती है । इसमें आदमी खोकर पाता है । डूबकर तर जाता है । संकुचित होकर विस्तृत हो जाता है | लूटाकर लुट जाता है | अनुराग से आरंभ हुई यात्रा वैराग तक जा पहुँचती है | यहाँ सारे अपवाद घटित होते है | इसीलिए अमीर खुसरों ने भी कहा कि
"खुसरो दरिया प्रेम का उलटी वाकी धार।
जो तैरा सो डूब गया जो डूबा सो पार ।"