Hindi, asked by sauravsharma5611, 4 months ago

`नीचे लिखे गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिए- 19/ मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि अपने अहं के संपूर्ण त्याग में है। जहाँ वह शुद्ध समर्पण के उदात्त भाव से प्रेरित होकर अपने 'स्व' का त्याग करने को प्रस्तुत होता है वहीं उसके व्यक्तित्व की महानता परिलक्षित होती है। साहित्यानुरागी जव उच्च साहित्य का रसास्वादन करते समय स्वयं की सत्ता को भुला कर पात्रों के मनोभावों के साथ एकत्व स्थापित कर लेता है। भी उसे साहित्यानंद की दुर्लभ मुक्तामणि प्राप्त होती है। भक्त जब अपने आराध्य देव के चरणों में अपने 'आप' को अर्पित कर देता है और पूर्णतः प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा को लय कर देता है तभी उसे प्रभु-भक्ति की अलभ्य पूँजी मिलती है। यह विचित्र विरोधाभास है कि कुछ और प्राप्त करने के लिए स्वयं को भूल जाना ही एकमात्र सरल और सुनिश्चित उपाय है। यह अत्यंत सरल दिखने वाला उपाय अत्यंत कठिन भी है। भौतिक जगत में अपनी क्षुद्रता को समझते हुए भी मानव-हृदय अपने अस्तित्व के झूठे अहंकार में डूबा रहता है उसका त्याग कर पाना उसकी सबसे कठिन परीक्षा है। किंतु यही उसके व्यक्तित्व की चरम उपलब्धि भी है। दूसरे का नि:स्वार्थ प्रेम प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छा-आकांक्षाओं और लाभ-हानि को भूल कर उसके प्रति सर्वस्व समर्पण ही एकमात्र माध्यम है। इस प्राप्ति का अनिवर्चनीय सुख वही चख सकता है जिसने स्वयं को देना-लुटाना जाना हो। इस सर्वस्व समर्पण से उपजी नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता अपूर्व समृद्धि और परमानंद का सुख वह अनुरागी चित्त ही समझ सकता है जो- CBSE 2015 'ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होय' प्रश्न-(क) मनुष्य जीवन की महानता किसमें है? लेखक ऐसा क्यों मानता है? (ख) 'साहित्यानुरागी' से क्या तात्पर्य है? उसे आनंद किस प्रकार प्राप्त होता है? (ग) प्रभु-भक्ति की पूँजी कैसी बताई गई है और भक्त उसे कब प्राप्त कर सकता है? (घ) मनुष्य के व्यक्तित्व की चरम उपलब्धि क्या है और क्यों? (ङ) 'विचित्र विरोधाभास' किसे माना गया है और क्यों? (च) 'सर्वस्व समर्पण' का क्या तात्पर्य है और ऐसा करने के क्या लाभ हैं? AX ``नीचे लिखे गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उनके नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दीजिए- 19/ मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सिद्धि अपने अहं के संपूर्ण त्याग में है। जहाँ वह शुद्ध समर्पण के उदात्त भाव से प्रेरित होकर अपने 'स्व' का त्याग करने को प्रस्तुत होता है वहीं उसके व्यक्तित्व की महानता परिलक्षित होती है। साहित्यानुरागी जव उच्च साहित्य का रसास्वादन करते समय स्वयं की सत्ता को भुला कर पात्रों के मनोभावों के साथ एकत्व स्थापित कर लेता है। भी उसे साहित्यानंद की दुर्लभ मुक्तामणि प्राप्त होती है। भक्त जब अपने आराध्य देव के चरणों में अपने 'आप' को अर्पित कर देता है और पूर्णतः प्रभु की इच्छा में अपनी इच्छा को लय कर देता है तभी उसे प्रभु-भक्ति की अलभ्य पूँजी मिलती है। यह विचित्र विरोधाभास है कि कुछ और प्राप्त करने के लिए स्वयं को भूल जाना ही एकमात्र सरल और सुनिश्चित उपाय है। यह अत्यंत सरल दिखने वाला उपाय अत्यंत कठिन भी है। भौतिक जगत में अपनी क्षुद्रता को समझते हुए भी मानव-हृदय अपने अस्तित्व के झूठे अहंकार में डूबा रहता है उसका त्याग कर पाना उसकी सबसे कठिन परीक्षा है। किंतु यही उसके व्यक्तित्व की चरम उपलब्धि भी है। दूसरे का नि:स्वार्थ प्रेम प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छा-आकांक्षाओं और लाभ-हानि को भूल कर उसके प्रति सर्वस्व समर्पण ही एकमात्र माध्यम है। इस प्राप्ति का अनिवर्चनीय सुख वही चख सकता है जिसने स्वयं को देना-लुटाना जाना हो। इस सर्वस्व समर्पण से उपजी नैतिक और चारित्रिक दृढ़ता अपूर्व समृद्धि और परमानंद का सुख वह अनुरागी चित्त ही समझ सकता है जो- CBSE 2015 'ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग त्यों-त्यों उज्ज्वल होय' प्रश्न-


(क) मनुष्य जीवन की महानता किसमें है? लेखक ऐसा क्यों मानता है?

(ख) 'साहित्यानुरागी' से क्या तात्पर्य है? उसे आनंद किस प्रकार प्राप्त होता है?

(ग) प्रभु-भक्ति की पूँजी कैसी बताई गई है और भक्त उसे कब प्राप्त कर सकता है?

(घ) मनुष्य के व्यक्तित्व की चरम उपलब्धि क्या है और क्यों?

(ङ) 'विचित्र विरोधाभास' किसे माना गया है और क्यों?

(च) 'सर्वस्व समर्पण' का क्या तात्पर्य है और ऐसा करने के क्या लाभ हैं?​

Answers

Answered by iorko05
1

Answer:

hi hello and what's up Bhai

big fan from Bangladesh ❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️

Answered by 292007rasu
0

Answer: 1) d

2) a

3) a

4) c

5) b

Explanation:

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