Hindi, asked by sammukeshv1773, 8 months ago

नागार्जन जी का जीवन परिचय ​

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Answered by rajviprasad2601
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नागार्जुन (30जून 1911[a]- 5 नवम्बर 1998) हिन्दी और मैथिली के अप्रतिम लेखक और कवि थे। अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकार नागार्जुन ने हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली संस्कृत एवं बाङ्ला में मौलिक रचनाएँ भी कीं तथा संस्कृत, मैथिली एवं बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित नागार्जुन ने मैथिली में यात्री उपनाम से लिखा तथा यह उपनाम उनके मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र के साथ मिलकर एकमेक हो गया।

जीवन-परिचय :----------

नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा[a] को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।[7] गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।"[8]

गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।

ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।"[7]

वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की।[8] वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये।[9] फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।"[10] और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।

Answered by jethwanianju47
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नागार्जुन का जन्म १९११ ई० की ज्येष्ठ पूर्णिमा[a]  को वर्तमान मधुबनी जिले के सतलखा में हुआ था। यह उन का ननिहाल था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम 'ठक्कन मिसर' था।[7] गोकुल मिश्र और उमा देवी को लगातार चार संताने हुईं और असमय ही वे सब चल बसीं। संतान न जीने के कारण गोकुल मिश्र अति निराशापूर्ण जीवन में रह रहे थे। अशिक्षित ब्राह्मण गोकुल मिश्र ईश्वर के प्रति आस्थावान तो स्वाभाविक रूप से थे ही पर उन दिनों अपने आराध्य देव शंकर भगवान की पूजा ज्यादा ही करने लगे थे। वैद्यनाथ धाम (देवघर) जाकर बाबा वैद्यनाथ की उन्होंने यथाशक्ति उपासना की और वहाँ से लौटने के बाद घर में पूजा-पाठ में भी समय लगाने लगे। "फिर जो पाँचवीं संतान हुई तो मन में यह आशंका भी पनपी कि चार संतानों की तरह यह भी कुछ समय में ठगकर चल बसेगा। अतः इसे 'ठक्कन' कहा जाने लगा। काफी दिनों के बाद इस ठक्कन का नामकरण हुआ और बाबा वैद्यनाथ की कृपा-प्रसाद मानकर इस बालक का नाम वैद्यनाथ मिश्र रखा गया।"[8]

गोकुल मिश्र की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं रह गयी थी। वे काम-धाम कुछ करते नहीं थे। सारी जमीन बटाई पर दे रखी थी और जब उपज कम हो जाने से कठिनाइयाँ उत्पन्न हुईं तो उन्हें जमीन बेचने का चस्का लग गया। जमीन बेचकर कई प्रकार की गलत आदतें पाल रखी थीं। जीवन के अंतिम समय में गोकुल मिश्र अपने उत्तराधिकारी (वैद्यनाथ मिश्र) के लिए मात्र तीन कट्ठा उपजाऊ भूमि और प्रायः उतनी ही वास-भूमि छोड़ गये, वह भी सूद-भरना लगाकर। बहुत बाद में नागार्जुन दंपति ने उसे छुड़ाया।

ऐसी पारिवारिक स्थिति में बालक वैद्यनाथ मिश्र पलने-बढ़ने लगे। छह वर्ष की आयु में ही उनकी माता का देहांत हो गया। इनके पिता (गोकुल मिश्र) अपने एक मात्र मातृहीन पुत्र को कंधे पर बैठाकर अपने संबंधियों के यहाँ, इस गाँव--उस गाँव आया-जाया करते थे। इस प्रकार बचपन में ही इन्हें पिता की लाचारी के कारण घूमने की आदत पड़ गयी और बड़े होकर यह घूमना उनके जीवन का स्वाभाविक अंग बन गया। "घुमक्कड़ी का अणु जो बाल्यकाल में ही शरीर के अंदर प्रवेश पा गया, वह रचना-धर्म की तरह ही विकसित और पुष्ट होता गया।"[7]

वैद्यनाथ मिश्र की आरंभिक शिक्षा उक्त पारिवारिक स्थिति में लघु सिद्धांत कौमुदी और अमरकोश के सहारे आरंभ हुई। उस जमाने में मिथिलांचल के धनी अपने यहां निर्धन मेधावी छात्रों को प्रश्रय दिया करते थे। इस उम्र में बालक वैद्यनाथ ने मिथिलांचल के कई गांवों को देख लिया। बाद में विधिवत संस्कृत की पढ़ाई बनारस जाकर शुरू की।[8] वहीं उन पर आर्य समाज का प्रभाव पड़ा और फिर बौद्ध दर्शन की ओर झुकाव हुआ। उन दिनों राजनीति में सुभाष चंद्र बोस उनके प्रिय थे। बौद्ध के रूप में उन्होंने राहुल सांकृत्यायन को अग्रज माना। बनारस से निकलकर कोलकाता और फिर दक्षिण भारत घूमते हुए लंका के विख्यात 'विद्यालंकार परिवेण' में जाकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। राहुल और नागार्जुन 'गुरु भाई' हैं। लंका की उस विख्यात बौद्धिक शिक्षण संस्था में रहते हुए मात्र बौद्ध दर्शन का अध्ययन ही नहीं हुआ बल्कि विश्व राजनीति की ओर रुचि जगी और भारत में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन की ओर सजग नजर भी बनी रही। १९३८ ई० के मध्य में वे लंका से वापस लौट आये।[9] फिर आरंभ हुआ उनका घुमक्कड़ जीवन। साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ नागार्जुन राजनीतिक आंदोलनों में भी प्रत्यक्षतः भाग लेते रहे। स्वामी सहजानंद से प्रभावित होकर उन्होंने बिहार के किसान आंदोलन में भाग लिया और मार खाने के अतिरिक्त जेल की सजा भी भुगती। चंपारण के किसान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। वस्तुतः वे रचनात्मक के साथ-साथ सक्रिय प्रतिरोध में विश्वास रखते थे। १९७४ के अप्रैल में जेपी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ वाणी की ही नहीं, कर्म की हो, इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।"[10] और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फिर काफी समय जेल में रहना पड़ा।

१९४८ ई० में पहली बार नागार्जुन पर दमा का हमला हुआ और फिर कभी ठीक से इलाज न कराने के कारण[11]आजीवन वे समय-समय पर इससे पीड़ित होते रहे। दो पुत्रियों एवं चार पुत्रों से भरे-पूरे परिवार वाले नागार्जुन कभी गार्हस्थ्य धर्म ठीक से नहीं निभा पाये और इस भरे-पूरे परिवार के पास अचल संपत्ति के रूप में विरासत में मिली वही तीन कट्ठा उपजाऊ तथा प्रायः उतनी ही वास-भूमि रह गयी।[8]

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