न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुख मृगाः ।।3।।
चतुर्थी विभक्तिः
आत्मनः प्रतिकूलानि,
परेभ्यो यदि नेच्छसि।
परेषां प्रतिकूलेभ्यो, निवर्तय ततो मन:।।4।।
पञ्चमी विभक्तिः
विद्या ददाति विनयम्, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मं ततः सुखम् ।।5।।
'शिक्षक के लिए
• शिक्षक श्लोकों का सस्वर वाचन कर छात्रों से अनुकरण वाचन करा सकते हैं।
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this is Sanskrit language our mother language of all languages....
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुख मृगाः ।।
hindi: सोते हुए शेर के मुह मै मृग(उसका आहार) अपने आप नहीं चला जाता
इसका अर्थ है कोई काम सिद्ध करने के लिए हमें कष्ट उठाना ही परता है कोई काम बिना कष्ट किए अपने आप नहीं होता।
विद्या ददाति विनयम्, विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मं ततः सुखम् ।।5।।
हिंदी: बिद्या हमें विनय होना सिखाती है, विनय होने से हम उचित पात्र बन जाते है किसी भी काम के लिए, पात्र होने से धन की प्राप्ति होता है ओर धन सुखी बनाता है।
आशा करती हूं ये उत्तर आपके काम आयेगा।
Answer:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।
अर्थात् ‘धर्म का सर्वस्व जिसमें समाया है, ऐसे धर्म का सार सुनिए और सुनकर हृदय में उतारिए कि अपनी आत्मा को जो दुःखदायी लगे, वैसा आचरण दूसरों के साथ मत करिए।’
अपमान, तिरस्कार, मारपीट, गाली क्या आपकी आत्मा को अच्छी लगेगी? कोई बलवान मनुष्य यदि आपको सताए, आपका गला दबाए तो उससे आपको दुःख होगा या हर्ष? दुःख ही होगा। अतः मन में यह पक्का करना है कि ‘जितनी वस्तु मुझे दुःख रूप लगे, उनका मैं दूसरों के प्रति आचरण न करूं।’ इतना यदि प्रत्येक व्यक्ति सीख जाए तो संसार में कोई झगडा ही न रहे। यही उत्तम कोटि का धर्म है।