Hindi, asked by fizakhatoon38, 7 months ago

नेहरू जी ने बच्चे को उपहार देते हुए क्या कहा और क्यों?​

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Answered by Rahulbawankar
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आज बाल दिवस है. प्यारे बच्चों के चाचा नेहरू का जन्मदिवस. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को बच्चे इतने प्यारे थे कि उन्होंने अपना जन्मदिन बच्चों के ही नाम कर दिया. उनके बालक-प्रेम के कई किस्से मशहूर हैं. इनमें यह किस्सा भी शामिल है कि त्रिमूर्ति भवन में एक अकेले रोते शिशु को उन्होंने अपनी गोद में थपकियां देकर चुप कराया था, जिसे देखकर उसकी मां भी हैरान रह गई थी. चाचा नेहरू को बच्चों से कितना लगाव था, इसका अंदाज़ा तीन नवंबर 1949 को बच्चों के नाम लिखे उनके पत्र से स्पष्ट होता है. उन्होंने लिखा था- ‘कुछ महीने पहले जापान के बच्चों ने मुझे पत्र लिखा और मुझसे अपने लिए हाथी भेजने को कहा. मैंने भारत के बच्चों की तरफ से उनके लिए एक नन्हा-सा हाथी भेजा है. यह हाथी दोनों देशों के बच्चों के बीच सेतु का काम करेगा.’

नेहरू जी जानते और समझते थे कि बच्चे हर देश का भविष्य और उसकी तस्वीर होते हैं. लेकिन अगर आज नेहरू जी होते तो देश में बाल मजदूरी, बाल विवाह और बाल शोषण के तमाम अनैतिक और क्रूर कृत्य देखकर ज़ार-ज़ार रोते! उनसे यह बर्दाश्त नहीं होता कि जो देश भगवान बालकृष्ण की मनोहारी लीलाओं पर बलिहारी जाता है, वहां लाखों बच्चे समय पर इलाज न मिल पाने के कारण असमय काल के गाल में समा जाते हैं और अगर किसी तरह बच गए तो बाल मजदूरों के रूप में नारकीय ज़िंदगी बिताते हैं.

आज चाचा नेहरू होते तो अपने आस-पास रोज़ देखते कि कहने को तो वे बच्चे हैं लेकिन सबसे पहले उठकर अमानवीय परिस्थितियों के बीच अपनी उम्र और क्षमता से बढ़कर दिन में 14 घंटा मशक्कत करते हैं. इसके एवज में उन्हें रोटियां कम मालिकों की प्रताड़ना और गालियां अधिक खाने को मिलती हैं. रात में वे रूखी-सूखी खाकर सो जाते हैं और दूसरी सुबह फिर कचरा चुनने या कार्यस्थलों पर पहुंच जाते हैं.

ऐसे हज़ारों बच्चे आपको बीड़ी उद्योग में मिल जाएंगे. अवैध पटाख़ा उद्योग, माचिस उद्योग, गुब्बारा उद्योग, कालीन उद्योग, ईंट भट्ठा उद्योग, ताला उद्योग, स्लेट उद्योग, ख़ान और ढाबा-होटल तो इनके बिना चल ही नहीं सकते. इन उद्योगों में बचपन खपाने को मजबूर इन बच्चों को उपहार स्वरूप खिलौने और कपड़ों की जगह जीवन भर की बीमारियां मिलती हैं. इन बीमारियों में स्थायी थकावट, धूल और रेशों से घिरे रहने के कारण नाक की बीमारियां, निमोनिया, उनींदापन, निकोटिन के ज़हर से होने वाले रोग, स्थायी सिरदर्द, अंधापन, हृदय रोग, श्वसन एवं फेफड़ों से संबंधित बीमारियां, दम घुटना, मांशपेशियां बेकार हो जाना, तेज़ाब से जल जाना, पिघलते कांच से घिरे रहने के कारण कैंसर, टीवी, मानसिक विकलांगता; यहां तक कि यौनशोषण जैसे भयंकर अजाब शामिल हैं. नेहरू जी सोचमग्न हो जाते कि कैसे यह दुष्चक्र भोले-भाले बच्चों से उनका बचपन छीनकर उन्हें नशा और अपराध की दुनिया में धकेल रहा है!

चाचा नेहरू को बड़ी चिंता होती कि कई दशकों से विभिन्न स्तरों पर बाल मजदूरी उन्मूलन के लिए कायदा-कानून बनाने तथा प्रतिबंध लगाने की कोशिशों के बावजूद आज भी देश के करोड़ों बच्चों को काम पर क्यों जाना पड़ रहा है? नेहरू जी उन बच्चों को लेकर भी चिंतित होते जो मां-बाप की अतिव्यस्तता के चलते ‘क्रैश’ या आयाओं के भरोसे पल रहे हैं, खुले मैदान में खेलने की बजाए वीडियो गेम्स खेलकर बड़े हो रहे हैं, इंटरनेट, केबल टीवी और आईपैड की दुनिया में भटककर अपनी ज़मीन, संस्कार, संस्कृति और जड़ों से कटते जा रहे हैं, माचिस की डिबियों जैसे फ्लैटों में क़ैद रहकर अदृश्य प्रतिद्वंद्वियों से मुक़ाबला कर रहे हैं और नटखटपना त्यागकर आत्मकेंद्रित बनते जा रहे हैं.

नेहरू जी को निश्चित ही देश के हर बच्चे की चिंता होती लेकिन जीवन की मूलभूत ज़रूरतों की पूर्ति के लिए दिन-रात खटती नन्हीं हथेलियों की चिंता में तो वह घुले ही जा रहे होते! उनकी चिंता का एक बड़ा कारण यह भी होता कि आज़ादी की लड़ाई में शामिल रही उनकी कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र में कभी भी बाल दासता से आज़ादी दिलाने का वादा क्यों नहीं किया जाता? बाल दासता के शिकार 100 में से 75 बच्चे अल्पसंख्यकों, हरिजन, आदिवासियों और 20 बच्चे अन्य पिछड़ी जातियों के होते हैं. लेकिन सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करने वाले आज के वाम दलों, टीडीपी, डीएमके-एआईडीएमके, सपा-बसपा, राजद-जेडीयू जैसे राजनीतिक दलों के एजेंडे में भी बाल दासता की समाप्ति और मुक्ति का कोई जिक्र क्यों नहीं होता? नेहरू जी शायद यह पूछने की हिम्मत भी जुटाते कि अगर बच्चा-बच्चा राम का है, तो सुबह-सवेरे उठकर कचरे के सड़े हुए ढेर से अपने लिए भोजन चुनने पर क्यों मजबूर है?

स्पष्ट है कि देश के बच्चों के लिए चाचा नेहरू ने सुनहरे भविष्य के जो सपने देखे थे वे आज भी धूल-धूसरित हैं. सीन यह है कि कारों में घूमते हुए लोग आइसक्रीम खाकर उसमें लिपटा कागज़ फेंकते हैं और उस कागज को लपकने के लिए दर्ज़नों बच्चे स्पर्द्धा करते नज़र आते हैं. जनगणना के आंकड़ों पर नज़र डालें तो 1991 में बाल मजदूरों की संख्या 1.12 करोड़ थी जो 2001 में बढ़कर 1.25 और 2011 में करीब दो करोड़ हो गई थी. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग मानता है कि बालश्रम भारत पर काले धब्बे के समान है लेकिन चाचा नेहरू के सपनों को पूरा करने के लिए इस बुराई को पूरी तरह से समाप्त करने और देश के सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करता. असहाय बच्चों को न्याय दिलाने के मामले में देश का श्रम मंत्रालय भी असरहीन एवं असहाय बना हुआ है.

ऐसे में आज नेहरू जी यह सोचने पर मजबूर हो जाते कि आख़िर वह किन बच्चों के चाचा हैं? सिर्फ उनके जो सज-संवर कर स्कूलों में जाकर बाल-दिवस मना सकते हैं या उनके भी जो उन स्कूलों के सामने बैठे जूते गांठा करते हैं!

Answered by singharuno45oo
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