Science, asked by Anonymous, 3 months ago

निजी चैनलों पर सरकारी नियंत्रण होना चाहिए अथवा नहीं पक्ष विपक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए 250-300 शब्दो मे​

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Answered by singhamanpratap0249
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सोशल मीडिया ने पिछले एक दशक में संचार और संवाद की दुनिया में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। एक तरफ सूचनाओं का अबाध और तेजी से प्रसार बढ़ा है तो दूसरी तरफ खबरों की दुनिया ही बदल गयी है। बिना संपादक वाली इस खुली व्यवस्था के तमाम लाभों के साथ एक बड़ा घाटा यह सामने आया है कि सूचना और अफवाह तथा खबर और प्रोपगंडा के बीच का भेद मिट गया है। यही कारण है कि आजकल टीवी चैनलों समेत कुछ प्रकाशनों में वायरल सच नाम से कार्यक्रम भी शुरू हो चुका है। इन खामियों के बावजूद इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया संचार के सभी माध्यमों में सबसे तेज है और सबसे अधिक पहुंच रखता है। यही कारण है कि निजी और सरकारी संगठनों और संस्थाओं समेत विभिन्न सरकारें और उनके विभाग भी न केवल सोशल मीडिया पर हैं, बल्कि सोशल मीडिया पर अपनी पहुंच और उपस्थिति बढ़ाने के लिए व्यापक रणनीति बनाते हैं।

आज हर कोई सोशल मीडिया की नि:शुल्क, अबाध और तेज गति का फायदा तो उठाना चाहता है लेकिन इसके खुद के लिए होने वाले नकारात्मक प्रभावों से बचना भी चाहता है। ऐसी मंशा को लेकर अब तक सोशल मीडिया के जरिये किए जा रहे संचार और संवाद को नियंत्रित करने के प्रयास लगातार किए जाते रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पांच फरवरी 2009 को सरकार ने इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी अधिनियम 2000 (संशोधित 2008) की धारा 66-ए को लागू किया था, जिसके तहत अगर कोई व्यक्ति संचार माध्यमों के जरिये किसी को अपमानजनक/ घृणास्पद/ आक्रामक संदेश भेजता है तो उसे तीन वर्ष की कैद व जुर्माने की सजा दी जा सकती है, जिसे उच्चतम न्यायालय ने मार्च 2015 में असंवैधानिक घोषित कर दिया था। इसके बावजूद सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के मंसूबों से सरकारें पीछे हटने का नाम नहीं ले रही हैं, वे चाहती हैं कि सोशल मीडिया पर उनका पूरा नियंत्रण हो ताकि वह जनता के विचारों को नियंत्रित कर सकें।

हाल ही में केंद्र सरकार ने देश के हर जिले में एक सोशल मीडिया हब बनाने का सर्कुलर जारी किया था। ब्रॉडकॉस्ट कंसल्टेंट इंडिया लिमिटेड के जरिये जारी टेंडर में एक सॉफ्टवेयर आपूर्ति की बात थी, जिससे तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर नजर रखा जाना था। इस सर्कुलर के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस विधायक महुआ मोईत्र द्वारा दाखिल यचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि सोशल मीडिया की निगरानी के जरिये क्या सरकार सर्विलांस स्टेट बनाना चाहती है? अपनी याचिका में महुआ मोईत्र ने न्यायालय में कहा था कि सोशल मीडिया हब बनाने से तमाम सोशल साइटों में मौजूद हर डाटा तक सरकार की पहुंच हो जाएगी, जो देश के नागरिकों के निजता के अधिकारों का उल्लंघन होगा और सरकार को लोगों की निजी जानकारी खंगालने का अधिकार नहीं दिया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय की ताजा सुनवाई के दौरान सरकार ने तीन सदस्यीय पीठ के सामने कहा कि सरकार सोशल मीडिया हब बनाने की नीति की फिर से समीक्षा करेगी और इसलिए उसने संबंधित सकरुलर को वापस लेने का फैसला किया है।

सरकार के इस फैसले से सोशल मीडिया पर सरकारी नियंत्रण के मंसूबे पर फिलहाल तो विराम लग गया है, लेकिन सरकार कोई भी हो वह इस पर अधिक समय तक मौन नहीं रहने वाली क्योंकि सरकारों का चरित्र उनकी लोकप्रियता के बुनियाद पर टिका होता है, इसलिए जब सरकारें चुनावी वादों को पूरा नहीं कर पातीं, अपनी नीतिगत राजनीति में फेल होने लगती हैं और जनता का उनमें विश्वास कम होने लगता है तो वे जनता की असहमति की आवाजों को दबाने के लिए संचार माध्यमों पर ही हमला करती हैं। अगर आज सोशल मीडिया अफवाहों का अड्डा है तो मुख्यधारा की मीडिया भी अपनी विश्वसनीयता को लेकर कटघरे में खड़ा नजर आता है। इन दोनों को जिस बिंदु पर अलग किया जा सकता है, वह है सोशल मीडिया पर खबरों और सूचनाओं को किसी के दबाव में रोका नहीं जा सकता है, यही कारण है कि सरकारें और राजनीतिक दल इस माध्यम से सबसे अधिक परेशानी महसूस करने लगे हैं।

एक जमाना था जब आंकड़ों और शोधों के लिए रिपोटोर्ं पर भारी निर्भरता होती थी, जहां तक आम जनता की पहुंच नहीं के बराबर थी। मुख्यधारा की मीडिया के हाथ में था कि वह इन रिपोटोर्ं का किस तरह से और किसके पक्ष में विश्लेषण करे, लेकिन आज सबकुछ एक क्लिक की दूरी पर है और नई मीडिया के प्रबंधन या एडिटर जैसी व्यवस्था से मुक्त होने के चलते, सामूहिक संचार और संवाद का वास्तविक और लोकतांत्रिक मंच बनकर उभरा है। इसी का प्रभाव है कि किसी मुद्दे पर देशभर के लोग वैचारिक रूप से एकजुट हुए हैं और नई आवाज बनकर एक नई कहानी लिख रहे हैं। ऑनलाइन मीडिया और उसके सामाजिक प्रभाव का यह दबाव अखबारों, न्यूज चैनलों और पत्रिकाओं सभी पर देखा जा सकता है। आज शायद ही कोई ऐसा मीडिया हो, जो ऑनलाइन न हो। ये सभी माध्यम बहुत ही तेजी से नई मीडिया से जुड़े हैं। फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब और इंस्टाग्राम के गैर-विभेदकारी संचार का दबाव यह है कि मुख्यधारा की मीडिया के साथ सरकार के मंत्रलय, विभाग, अधिकारी और सार्वजनिक उपक्रम तक इससे जुड़ गए हैं।

भारत की जिस भाषाई विविधता को भारत सरकार आजादी के सात दशक तक देशव्यापी संचार में रोड़ा मानती रही, उसे नई मीडिया की क्रांति ने धता बताकर हर भाषा को अपना जरिया बना लिया और हर भाषा की आवाज बन गई। इसलिए नई मीडिया की संचार की इस ताकत पर किसी भी नियंत्रण के खिलाफ हर उस मौके पर खड़ा होना पड़ेगा और लगाए जा रहे हर अंकुश के खिलाफ लड़ाई को जीतना ही होगी, ठीक वैसे ही जैसे मोईत्र ने पूरी जनता की अभिव्यक्ति की आजादी और मौलिक अधिकारों की लड़ाई को जीता है। देश की न्यायव्यवस्था और प्रणाली पर सवाल कम नहीं हैं, लेकिन देश के नागरिकों के हकों की लड़ाई के मामले में अधिकतर मौकों पर उच्चतम न्यायालय ने न्याय की एक बड़ी लकीर खींची है। यही वजह है कि इस देश में लोकतंत्र तमाम विसंगतियों के बावजूद अपने जिंदा होने के सबूत के साथ मौजूद है।

Answered by shivamgurjar8820
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निजी चैनल पर सरकारी नियंत्रण ना चाहिए अथवा नहीं पक्ष में राय

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