Hindi, asked by rajputjanvi500, 6 months ago

नाखून क्यों बढ़ते हैं निबंध का मूल संदेश क्या है पाठ पढ़कर आप किस तरह के समाज की कल्पना करते हैं अपने विचार व्यक्त कीजिए!​

Answers

Answered by vanshikasharma2005
12

Answer:

here is your answer. hope it helps you ✌

Explanation:

कुछ लाख ही वर्षों की बात है, जब मनुष्‍य जंगली था, वनमानुष जैसा। उसे नाखून की जरूरत थी। उसकी जीवन रक्षा के लिए नाखून बहुत जरूरी थे। असल में वही उसके अस्‍त्र थे। दाँत भी थे, पर नाखून के बाद ही उनका स्‍थान था। उन दिनों उसे जूझना पड़ता था, प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ना पड़ता था। नाखून उसके लिए आवश्‍यक अंग था। फिर धीरे-धीरे वह अपने अंग से बाहर की वस्‍तुओं का सहारा लेने लगा। पत्‍थर के ढेले और पेड़ की डालें काम में लाने लगा (रामचंद्रजी की वानरी सेना के पास ऐसे ही अस्‍त्र थे)। उसने हड्डियों के भी हथियार बनाए। इन हड्डी के हथियारों में सबसे मजबूत और सबसे ऐतिहासिक था देवताओं के राजा का वज्र, जो दधीचि मुनि की हड्डियों से बना था। मनुष्‍य और आगे बढ़ा। उसने धातु के हथियार बनाए। जिनके पास लोहे के शस्‍त्र और अस्‍त्र थे, वे विजयी हुए। देवताओं के राजा तक को मनुष्‍यों के राजा से इसलिए सहायता लेनी पड़ती थी कि मनुष्‍यों के राजा के पास लोहे के अस्‍त्र थे। असुरों के पास अनेक विद्याएँ थीं, पर लोहे के अस्‍त्र नहीं थे, शायद घोड़े भी नहीं थे। आर्यों के पास ये दोनों चीजें थी। आर्य विजयी हुए। फिर इतिहास अपनी गति से बढ़ता गया। नाग हारे, सुपर्ण हारे, यक्ष हारे, गंधर्व हारे, असुर हारे, राक्षस हारे। लोहे के अस्‍त्रों ने बाजी मार ली। इतिहास आगे बढ़ा। पलीते-वाली बंदूकों ने, कारतूसों ने, तोपों ने, बमों ने, बमवर्षक वायुयानों ने इतिहास को किस कीचड़-भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नख-धर मनुष्‍य अब एटम-बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं। अब भी प्रकृति मनुष्‍य को उसके भीतरवाले अस्‍त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्‍हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष पहले के नखदंतावलंबी जीव हो - पशु के साथ एक ही सतह पर विचरनेवाले और चरनेवाले।

ततः किम्। मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्‍य आज अपने बच्‍चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है। किसी दिन - कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व - वह अपने बच्‍चों को नाखून नष्‍ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि वह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्‍य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कंबख्‍त रोज बढ़ते हैं, क्‍योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्‍य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्‍त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्‍य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर-युग का कोई अवशेष रह जाय, यह उसे असह्य है। लेकिन यह कैसे कहूँ। नाखून काटने से क्‍या होता है? मनुष्‍य की बर्बरता घटी कहाँ है, वह तो बढ़ती जा रही है। मनुष्‍य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्‍याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है? यह तो उसका नवीनतम रूप है। मैं मनुष्‍य के नाखून की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ। ये उसकी भयंकर पाशवी वृत्ति के जीवन प्रतीक हैं। मनुष्‍य की पशुता को जितनी बार भी काट दो, वह मरना नहीं जानती।

कुछ हजार साल पहले मनुष्‍य ने नाखून को सुकुमार विनोदों के लिए उपयोग में लाना शुरू किया था। वात्‍स्‍यायन के 'कामसूत्र' से पता चलता है कि आज से दो हजार वर्ष पहले का भारतवासी नाखूनों को जमके सँवारता था। उनके काटने की कला काफी मनोरंजक बताई गई है। त्रिकोण, वर्तुलाकार, चंद्राकार, दंतुल आदि विविध आकृतियों के नाखून उन दिनों विलासी नागरिकों के न जाने किस काम आया करते थे। उनको सिक्‍थक (मोम) और अलक्‍तक (आलता) से यत्‍नपूर्वक रगड़कर लाल और चिकना बनाया जाता था। गौड़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे और दाक्षिणात्‍य लोग छोटे नखों को। अपनी-अपनी रुचि है, देश की भी और काल की भी। लेकिन समस्‍त अधोगामिनी वृत्तियों की ओर नीचे खींचनेवाली वस्‍तुओं को भारतवर्ष ने मनुष्‍योचित बनाया है, यह बात चाहूँ भी तो भूल नहीं सकता।

मानव-शरीर का अध्‍ययन करनेवाले प्राणि-विज्ञानियों का निश्चित मत है कि मानव-चित्त की भाँति मानव-शरीर में भी बहुत-सी अभ्‍यासजन्‍य सहज वृत्तियाँ रह गई हैं। दीर्घकाल तक उनकी आवश्‍यकता रही है। अतएव शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि वे वृत्तियाँ अनायास ही, और शरीर के अनजान में भी, अपने-आप काम करती है। नाखून का बढ़ना उसमें से एक है, केश का बढ़ना दूसरा है, दाँत का दुबारा उठना तीसरा है, पलकों का गिरना चौथा है। और असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान की स्‍मृतियाँ को ही कहते हैं। हमारी भाषा में भी इसके उदाहरण मिलते हैं। अगर आदमी अपने शरीर की, मन की और वाक् की अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे, तो उसे अपनी वास्‍तविक प्रवृत्ति पहचानने में बहुत सहायता मिले। पर कौन सोचता है? सोचना तो क्‍या, उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्‍व का प्रमाण है। उन्‍हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मनुष्‍यता की निशानी है और यद्यपि पशुत्‍व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुत्‍व को छोड़ चुका है। पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई और रास्‍ता खोजना चाहिए। अस्‍त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्‍यता की विरोधिनी है।

Similar questions