Hindi, asked by sriya824, 1 year ago

नीलू कूतता का विषयवस्तु plz someone tell the answer

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Answered by loveyou22
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नीलू की कथा उसकी माँ की कथा से इस प्रकार जुड़ी है कि एक के बिना दूसरी अपूर्ण रह जाती है.

         उसकी अल्सेशियन माँ, लूसी के नाम से पुकारी जाती थी. हिरणी के समान वेगवती, साँचे में ढली हुई देह, जिस पर काला आभास देने वाले भूरे-पीले रोम, बुद्धिमानी का पता देने वाली काली पर छोटी आँखें, सजग खड़े कान और सघन, रोएँदार तथा पिछले पैरों के टखने को छूने वाली पूँछ, सब कुछ उसे राजसी विशेषता देते थे. थी भी तो वह सामान्य कुत्तों से भिन्न.

         उत्तरायण में जो पगडंडी दो पहाड़ियों के बीच से मोटर-मार्ग तक जाती थी, उसके अंत में मोटर-स्टॉप पर एक ही दुकान थी, जिससे आवश्यक खाद्य-सामग्री प्राप्त हो सकती थी. शीतकाल में यह रास्ता बर्फ़ से ढक जाता था. तब दुकान तक पहुँचने में असमर्थ उत्तरायण के निवासी, लूसी के गले में रूपये और सामग्री की सूची के साथ एक बड़ा थैला या चादर बाँधकर उसे सामान लाने भेज देते थे. बर्फ़ में मार्ग बना लेने की सहज चेतना के कारण वह सारी रुकावटों को पारकर दुकान तक पहुँच जाती. दुकानदार उसके गले से कपड़ा खोलकर रूपये, सूची आदि लेने के उपरांत सामान की गठरी उसके गले या पीठ से बाँध देता और लूसी सारे बोझ के साथ बर्फ़ीला मार्ग पार करती हुई सकुशल लौट आती. किसी-किसी दिन तो उसे कई बार आना-जाना पड़ता था, पर लूसी को सामान मँगवाने वालों के भुलक्कड़पन से कभी कोई शिकायत नहीं रही. गले में कपड़ा बांधते ही वह तीर की तरह दुकान की दिशा में चल देती. एक दिन अधिक ऊँचाई पर बसे किसी पर्वतीय गाँव से बर्फ़ में भटकता हुआ एक भूटिया कुत्ता दुकान पर आ गया और लूसी से उसकी मैत्री हो गयी.

         उन्हीं सर्दियों में लूसी ने दो बच्चों को जन्म दिया, किन्तु उनमें से एक तो शीत के कारण मर गया और दूसरा उस ठिठुराने वाले परिवेश से जूझने लगा. चार-पाँच दिन के बच्चे को छोड़कर लूसी फिर दुकान तक आने-जाने लगी थी.

         एक संध्या के झुटपुटे में लूसी ऐसी गयी कि फिर लौट ही न सकी. शीतकाल में घ्राणशक्ति के कुछ कुंठित हो जाने के कारण कुत्ते लकड़बग्घे के आने की गंध पाने में असमर्थ रहते हैं और उसके अनायास आहार बन जाते हैं. लूसी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था.

          लूसी के लिए सभी रोए, परंतु जिसे सबसे अधिक रोना चाहिये था, वह बच्चा तो कुछ जानता ही न था. एक दिन पहले ही उसकी आँखें खुली थीं, अतः माँ से अधिक वह दूध के अभाव में शोर मचाने लगा. दुग्ध-चूर्ण से दूध बनाकर उसे पिलाया जाता, पर रजाई में भी वह माँ के पेट की उष्णता खोजता और न पाने पर रोता-चिल्लाता रहता. अंत में हमने उसे कोमल ऊन और अधबुने स्वेटर की डलिया में रख दिया, जहाँ वह माँ के सामीप्य सुख के भ्रम में सो गया. डलिया में वह ऊन की गेंद जैसा ही लगता था. जब हम प्रयाग लौटे तो उसे भी साथ लाना पड़ा.

       बड़े होने पर रोमों के भूरे, पीले और काले रंगों के मिलन से जो रंग बना था, वह एक विशेष प्रकार का धूप-छाँही हो गया था. धूप पड़ने पर एक रंग की झलक मिलती थी , छाँह में दूसरे रंग की और दिए के उजाले में तीसरे रंग की. कानों की चौड़ाई और नुकीलेपन में भी कुछ नवीनता थी. सिर ऊपर की ओर अन्य कुत्तों के सिर से बड़ा और चौड़ा था और लंबोतरा, पर सुडौल. पूँछ अल्सेशियन कुत्तों की पूँछ के समान सघन रोमों से युक्त, पर पंजे भूटिये के समान मजबूत, चौड़े और मुड़े हुए नाखूनों से युक्त थे. उन गोल और काली कोर वाली आँखों का रंग शहद के रंग के समान था, जो धूप में तरल सुनहला हो जाता था और छाया में जमे हुए मधु-सा पारदर्शी लगता था.

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