नील विद्रोह के संबंध में समकालीन शिक्षक बंगाली समाज के दृष्टिकोण का वर्णन कीजिए
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नील आंदोलन, शोषण के विरुद्ध किसानों की सीधी लड़ाई थी। यह भारत के जनआंदोलनों में सर्वाधिक व्यापक और जुझारू आंदोलन के रूप में जाना जाता है।
बंगाल के काश्तकार जोकि अपने खेतों में चावल की खेती करना चाहते थे, उन्हे यूरोपीय नील बागान मालिक नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे। नील की खेती करने से इनकार करने वाले किसानों को नील बागान मालिकों के दमनचक्र का सामना करना पड़ता था।
सितंबर 18५८ में परेशान किसानों ने अपने खेतों में नील न उगाने का निर्णय लेकर बागान मालिकों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
विद्रोह की पहली घटना बंगाल के नदिया जिले में स्थित गोविन्दपुर गांव में सितंबर 18५८ में हुई। स्थानीय नेता दिगम्बर विश्वास और विष्णु विश्वास के नेतृत्व में किसानों ने नील की खेती बंद कर दी।
एक साल के भीतर 1860 तक, नील आंदोलन, बंगाल के नदिया, पावना, खुलना, ढाका, मालदा, दीनाजपुर आदि क्षेत्रों में फैल गया। किसानों की एकजुटता के कारण बंगाल में 1860 तक लगभग सभी नील कारखाने बंद हो गये।
1860 में ही नील आयोग के सुझाव पर जारी की गई सरकारी अधिसूचना के आधार पर, जिसमें उल्लेख था कि - रैय्यतों को नील की खेती करने के लिए बाध्य नहीं किया जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि सभी प्रकार के विवादों का निपटारा कानूनी तरीके से किया जाए। इसका आंदोलन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
नील विद्रोह भारतीय किसानों का पहला सफल विद्रोह था, कालांतर में वह भारत के स्वाधीनता संघर्ष की सफलता में प्रेरक बना।
इस विद्रोह या आंदोलन के सफल होने के पीछे महत्वपूर्ण कारक था किसानों में अनुशासन, एकता, संगठन तथा सहयोग की भावना। कहीं-कहीं छोटे जमींदारों और महाजनों का सहयोग भी इसे मिला।
बंगाल के बुद्धिजीवियों, प्रचार माध्यमों, धर्म प्रचारकों एवं अखबारों का व्यापक सहयोग मिला। बुद्धिजीवियों ने अपने लेखों और जनसभाओं के माध्यम से विद्रोह के प्रति समर्थन व्यक्त किया और आंदोलन में जान फूंकी। हिन्दू पैट्रियाट के संपादक हरिश्चन्द्र मुखर्जी की इसमें विशेष भूमिका रही।
दीनबंधु मित्र ने अपने नाटक नील दर्पण में नील बागान मालिकों के अत्याचार का खुला चित्रण किया था।