(ङ) मेले के दंगल में लुट्टन सिंह के साहसी कारनामों का वर्णन कीजिए।
किसने.
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प्रतिपादय-पहलवान की ढोलक’ कहानी व्यवस्था के बदलने के साथ लोक-कला और इसके कलाकार के अप्रासंगिक हो जाने की कहानी है। राजा साहब की जगह नए राजकुमार का आकर जम जाना सिर्फ़ व्यक्तिगत सत्ता-परिवर्तन नहीं, बल्कि जमीनी पुरानी व्यवस्था के पूरी तरह उलट जाने और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है। यह ‘भारत’ पर ‘इंडिया’ के छा जाने की समस्या है जो लुट्टन पहलवान को लोक-कलाकार के आसन से उठाकर पैट-भरने के लिए हाय-तौबा करने वाली निरीहता की भूमि पर पटक देती है।
ऐसी स्थिति में गाँव की गरीबी पहलवानी जैसे शौक को क्या पालती? फिर भी, पहलवान जीवट ढोल के बोल में अपने आपको न सिर्फ़ जिलाए रखता है, बल्कि भूख व महामारी से दम तोड़ रहे गाँव को मौत से लड़ने की ताकत भी प्रदान करता है। कहानी के अंत में भूख-महामारी की शक्ल में आए मौत के षड्यंत्र जब अजेय लुट्टन की भरी-पूरी पहलवानी को फटे ढोल की पोल में बदल देते हैं तो इस करुणा/त्रासदी में लुट्टन हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है। वह पोल पुरानी व्यवस्था की है या नई व्यवस्था की ? क्या कला की प्रासंगिक व्यवस्था की मुखापेक्षी है अथवा उसका कोई स्वतंत्र मूल्य भी है? मनुष्यता की साधना और जीवन-सौंदर्य के लिए लोक-कलाओं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु हमारी क्या भूमिका हो सकती है? यह पाठ ऐसे कई प्रश्न छोड़ जाता है।
सारांश-सर्दी का मौसम था। गाँव में मलेरिया व हैजे का प्रकोप था। अमावस्या की ठंडी रात में निस्तब्धता थी। आकाश के तारे ही प्रकाश के स्रोत थे। सियारों व उल्लुओं की डरावनी आवाज से वातावरण की निस्तब्धता कभी-कभी भंग हो जाती थी। कभी किसी झोपड़ी से कराहने व कै करने की आवाज तथा कभी-कभी बच्चों के रोने की आवाज आती थी। कुत्ते जाड़े के कारण राख के ढेर पर पड़े रहते थे। सायं या रात्रि को सब मिलकर रोते थे। इस सारे माहौल में पहलवान की ढोलक संध्या से प्रात:काल तक एक ही गति से बजती रहती थी। यह आवाज मृत-गाँव में संजीवनी शक्ति भरती थी।
गाँव में लुट्टन पहलवान प्रसिद्ध था। नौ वर्ष की आयु में वह अनाथ हो गया था। उसकी शादी हो चुकी थी। उसकी विधवा सास ने उसे पाला। वह गाय चराता, ताजा दूध पीता तथा कसरत करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तंग किया करते थे। लुट्टन इनसे बदला लेना चाहता था। कसरत के कारण वह किशोरावस्था में ही पहलवान बन गया। एक बार लुट्टन श्यामनगर मेला में ‘दंगल’ देखने गया। पहलवानों की कुश्ती व दाँव-पेंच देखकर उसने ‘शेर के बच्चे’ को चुनौती दे डाली। ‘शेर के बच्चे’ का असली नाम था-चाँद सिंह। वह पहलवान बादल सिंह का शिष्य था। तीन दिन में उसने पंजाबी व पठान पहलवानों को हरा दिया था। वह अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था। श्यामनगर के दंगल व शिकार-प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की सोच रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी।
दर्शक उसे पागल समझते थे। चाँद सिंह बाज की तरह लुट्टन पर टूट पड़ा, परंतु वह सफ़ाई से आक्रमण को सँभालकर उठ खड़ा हुआ। राजा ने लुट्टन को समझाया और कुश्ती से हटने को कहा, किंतु लुट्टन ने लड़ने की इजाजत माँगी। मैनेजर से लेकर सिपाहियों तक ने उसे समझाया, परंतु लुट्टन ने कहा कि इजाजत न मिली तो पत्थर पर माथा पटककर मर जाएगा। भीड़ में अधीरता थी। पंजाबी पहलवान लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रहे थे। दर्शक उसे लड़ने की अनुमति देना चाहते थे। विवश होकर राजा साहब ने इजाजत दे दी। बाजे बजने लगे। लुट्टन का ढोल भी बजने लगा था। चाँद ने उसे कसकर दबा लिया था। वह उसे चित्त करने की कोशिश में था। लुट्टन के समर्थन में सिर्फ़ ढोल की आवाज थी, जबकि चाँद के पक्ष में राजमत व बहुमत था।
लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं, तभी ढोल की पतली आवाज सुनाई दी’धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना।’ इसका अर्थ था-दाँव काटो, बाहर हो जाओ। लुट्टन ने दाँव काटी तथा लपक कर चाँद की गर्दन पकड़ ली। ढोल ने आवाज दी-चटाक्-चट्-धा अर्थात उठाकर पटक दे। लुट्टन ने दाँव व जोर लगाकर चाँद को जमीन पर दे मारा। ढोलक ने ‘धिना-धिना, धिक-धिना।’ कहा और लुट्टन ने चाँद सिंह को चारों खाने चित्त कर दिया। ढोलक ने ‘वाह बहादुर!” की ध्वनि की तथा जनता ने माँ दुर्गा की, महावीर जी की, राजा की जय-जयकार की। लुट्टन ने सबसे पहले ढोलों को प्रणाम किया और फिर दौड़कर राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब ने उसे दरबार में रख लिया।
पंजाबी पहलवानों की जमायत चाँद सिंह की आँखें पोंछ रही थी। राजा साहब ने लुट्टन को पुरस्कृत न करके अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। राजपंडित व मैनेजर ने लुट्टन का विरोध किया कि वह क्षत्रिग्र नहीं है। राजा साहब ने उनकी एक न सुनी। कुछ ही दिन में लुट्टन सिंह की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। उसने सभी नामी पहलवानों को हराया। उसने ‘काला खाँ’ जैसे प्रसिद्ध पहलवान को भी हरा दिया। उसके बाद वह दरबार का दर्शनीय जीव बन अर्था। लुट्टन सिंह मेलों में घुटने तक लंबा चोंगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। हलवाई के आग्रह पर दो सेर रसगुल्ला खाता तथा मुँह में आठ-दस पान एक साथ दूँस लेता। वह बच्चों जैसे शौक रखता था। दंगल में उससे कोई लड़ने की हिम्मत नहीं करता। कोई करता तो उसे राजा साहब इजाजत नहीं देते थे। इस तरह पंद्रह वर्ष बीत गए। उसके दो पुत्र हुए। उसकी सास पहले ही मर चुकी थी और पत्नी भी दो पहलवान पैदा करके स्वर्ग सिधार गई। दोनों लड़के पहलवान थे। दोनों का भरण-पोषण दरबार से हो रहा था।