Hindi, asked by savitrikuriti, 7 months ago

निम्नलिखित में से किसी १ विषय पर दिए गए संकेत-चिदुओं के आधार पर लगभग ८०-१०० शब्दों में एक अनुच्छेद लिखिए । (i) देश पर पड़ता विदेशी प्रभाव हमारा देश और संस्कृति * विदेशी प्रभाव परिणाम और सुझाव​

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Answered by 12ishika19
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Answer:

जब भी भारतीय संस्कृति की बात होती है तो संस्कृति को कैसे उसके मूल रूप में बना कर और बचा कर रखा जाये, इसकी बात भी अवश्य होती है. इस बहस के आधार में एक सोच छुपी होती है कि मूल भारतीय संस्कृति वेदों और आर्यों की संस्कृति है, जो पाँच हज़ार वर्षों से भी पुरानी धरोहर है जिसे हमें सहेज कर रखना है. इसी मूल विचार को मान कर अक्सर भारतीय संस्कृति की रक्षा की बात करने वाले रुष्ठ हो जाते हैं जब कोई आर्यों के विदेश में मध्य एशिया से भारत में आने की बात करता है, क्योंकि उन्हें लगता है कि आर्यों का विदेश से आना मान लेने से यह हमारी संस्कृति भी विदेशी बन जाती है, उसकी भारतीयता में खोट सा आ जाता है.

मैं सोचता हूँ कि इस सारी बहस के मूल में दो गलतियाँ हैं.

पहली गलती: द्विवाद या बहुवाद ?

पश्चिमी विचार पद्धति के "द्विवाद" के तर्क को सोचने का एकमात्र तरीका मान कर हम लोग अपने "बहुवाद में एकता" के तर्क से सोचने के तरीके भुला देते हैं. पश्चिमी सोच द्विवाद (dichotomy) के तर्क पर बनी है, यानि एक वस्तु एक समय में एक ही हो सकती है, दो या अधिक नहीं. यह सोच का वैज्ञानिक तरीका है, सारा आधुनिक विज्ञान और तकनीकी इस सोच पर ही बना है. जीव जंतुओं और प्राणियों को विभिन्न श्रेणियों में बाँटने से ले कर, भौतिकी में अणु को बनाने वाले कणों की खोज तक सब इसी वैज्ञानिक द्विवाद के तर्क पर ही टिका है. यही तर्क पश्चिमी विचार पद्धति जो विज्ञान पर लगाती है, उसी तरह गैरभौतिक जगत यानि समाज, धर्म, संस्कृति पर भी लागू करती है, जैसे एकइश्वरवाद या बहुदेवपूजा के आधार पर धर्मों को विभिन्न गुटों में बाँटना, स्त्रियों पुरुषों को विषमलैंगिक, समलैंगिक जैसे हिस्सों में बाँटना, संस्कृतियों को देशी विदेशी गुटों में बाँटना, इत्यादि.

मैं द्विवाद (dichotomous thinking) के महत्व को कम या छोटा नहीं दिखाना चाहता, यह सचमुच मानव विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. पर एक अन्य तरीका भी है सोचने का जिसमें एक वस्तु एक साथ विभिन्न वस्तूओं का रूप ले सकती है, जो द्विवाद के तर्क से देखो तो समझ नहीं आते पर "बहुवाद में एकता" के तर्क से देखों तो समझ आ जाते हैं. इस तर्क में बहुत से भगवान, देवी देवता मान कर भी हम समझते हैं कि उन सबके पीछे ईश्वर एक ही है. मेरे विचार में विज्ञान के नये विकास इसी बहुवाद में एकता की सोच से ही आयेंगे, जैसे कि क्वाँटम भौतिकी (Quantum physics) या काओस थ्योरी (chaos theory) जैसी धारणाएँ. इस सोच में आपस में विराधाभास होने वाली बातों में समन्जस्व और एकता बनायी जाती है.

कुछ दिन पहले मैंने इस विषय पर अमरीकी लेखिका रेबेक्का सोलिंट (Rebecca Solint) का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने बर्मा में बुद्ध भिक्षुकों द्वारा बर्मा के मिलेटरी शासन के विरुद्ध किये जाने वाले संघर्ष के बारे में लिखा था. उनका कहना है कि यूरोपीय सोच "कर्म जीवन" और "आध्यात्मिक जीवन" को दो अलग श्रेणियों में बाँट कर देखती है और इसी बँटवारे की सोच की वजह से नहीं समझ पाती कि ध्यान और पूजा करने वाले बुद्ध भिक्षुक क्यों शासन के विरुद्ध सड़कों पर उतर आये?

हर वस्तु को बाँटना, उसे अलग नाम देना, इसी द्विवाद का प्रयोग यूरोप ने साम्राज्यवाद (colonialism) के लिए किया. पहला विभाजन किया दुनिया का सभ्य देशों और असभ्य देशों में. सभ्य देश थे यूरोप के, जहाँ के रहने वालों के साथ विभिन्न व्यवहार किया जाता था और दूसरे थे दुनिया के "असभ्य" देश, यानि बाकी की दुनिया जहाँ पर निम्न लोग रहते थे, जिन्हें गुलाम बनाया जा सकता था, जिन्हें मारा जा सकता था, जिनका शोषण किया जा सकता था.

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